हिंदी व्याकरण रस की परिभाषा, रस के उदाहरण और प्रकार कक्षा 9

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रस

रस का शाब्दिक अर्थ है – निचोड़। काव्य में जो आनन्द आता है वह ही काव्य का रस है। काव्य में आने वाला आनन्द अर्थात् रस लौकिक न होकर अलौकिक होता है। रस काव्य की आत्मा है। संस्कृत में कहा गया है कि “रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्” अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है।

·          भरतमुनि के अनुसार 8 रस हैं।

·          शांतरस को 9 वाँ रस माननेवालेउद्भट

·          वात्सल्य रस को 10 वाँ रस माननेवालेपं. विश्वनाथ

·          भक्तिरस को 11 वाँ रस माननेवालेभानुदत्त, गोस्वामी

·          प्रेयान नामक रस के प्रतिष्ठापकरुद्रट

रस
स्थायी  भाव
शृंगार
रति
हास्य
हास
करुण
शोक
रौद्र
क्रोध
वीर
उत्साह
भयानक
भय
वीभत्स
जुगुप्सा
अद्भुत
विस्मय
शांत
निर्वेद
वात्सल्य
वत्सलता
भक्ति
ईश्वर विषयकरति
प्रेयान
स्नेह

भारतीय काव्यशास्त्र के विभिन्न सम्प्रदायों में रस सिद्धान्त सबसे प्राचीन सिद्धान्त है। रस सिद्धान्त का विशद एवं प्रामाणिक विवेचन भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में ही सर्वप्रथम उपलब्ध होता है।

आचार्य विश्वनाथ – ’वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’

·          काव्य के पठन श्रवण, दर्शन से प्राप्त होने वाला लोकोत्तर आनन्द ही आस्वाद दशा में रस कहलाता है।

·          रस की निष्पत्ति सामाजिक के हृदय में तभी होती है, जब उसके हृदय में रजोगुण और तमोगुण का तिरोभाव होकर सत्वगुण का उद्रेक होता है। इसमें ममत्व और परत्व की भावना तथा सांसारिक राग-द्वेष का पूर्णतया लोप हो जाता है

·          रस अखण्ड होता है। सहृदय को विभाव अनुभाव व्यभिचारी भावों की पृथक्-पृथक् अनुभूति न होकर समन्वित अनुभूति होती है।

रस की विशेषताएँ

·          रस वेद्यान्तर स्पर्श शून्य है।

·          रस स्वप्रकाशानन्द तथा चिन्मय है।

·          रस को ब्रह्मानन्द सहोदर माना गया है। (साहित्य दर्पण-आचार्य विश्वनाथ)

·          रसानुभूति अलौकिक चमत्कार के समान है।

·          रस को कुछ आचार्य सुख-दुखात्मक मानते हैं।

·          रस मूलतः आस्वाद रूप है, आस्वाद्य पदार्थ नहीं है, फिर भी व्यवहार में ’रस का आस्वाद किया जाता है’ ऐसा प्रयोग गौण रूप से प्रचलित है। इसलिए रस अपने रूप से जनित है।

·          भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में रस सूत्र दिया है।

’विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पति’

इस मत के अनुसार जिस प्रकार नाना व्यंजनों के संयोग से भोजन करते समय पाक रसों का आस्वादन होता है। उसी प्रकार काव्य या नाटक के अनुशीलन से अनेक भावों का संयोग होता है, जो आस्वाद-दशा में ’रस’ कहलाता है।

रस के अवयव

1.    स्थायी भाव

·          मन के भीतर स्थायी रूप से रहने वाला सुषुप्त संस्कार या वासना को स्थायी भाव कहते हैं।

·          स्थायी भाव अनुमूल आलम्बन तथा उद्दीपन रूप उद्बोधन सामग्री के संयोग से रस रूप में अभिव्यक्त होते हैं।

·          स्थायी भाव ऐसा सागर है ो सभी विरोधी अविरोधी भावों को आत्मसात् करके अपने अनुरूप बना लेता है।

·          मम्मट आदि आचार्यों ने (1) रति (2) हास (3) शोक (4) क्रोध (5) भय (6) जुगुप्सा (7) निर्वेद (8) विस्मय नौ स्थायी भाव माने हैं।

रतिर्हासश्च शोकश्च क्रोधोत्साहो भयं तथा।

जगुप्सा विस्मयश्चेति स्थायिभावाः प्रकीर्तिताः।

निर्वेदः स्थायिभावोस्ति शान्तोξपि नवमो रसः।।

·          भरत मुनि के समय प्रारम्भ में निर्वेद को छोङ आठ भाव ही माने गए थे।

·          परवर्ती काल में हिन्दी के कवियों एवं आचार्यों ने वात्सल्य रस का स्थायी भाव ’वत्सल’ स्वीकार किया है तथा भक्ति रस में भक्तवत्सल्य रति को ग्यारहवाँ स्थायी भाव स्वीकार किया है।

2.    विभाव

जो कारण हृदय में स्थित स्थायी भाव को जाग्रत तथा उद्दीप्त करें अर्थात् रसानुभूति के कारण को विभाव कहते हैं।

विभाव के दो भेद हैं –

1.    आलम्बन विभाव – जिस व्यक्ति या वस्तु के कारण स्थायी भाव जाग्रत होता है उन्हें आलम्बन विभाव कहते हैं।

आचार्य विश्वनाथ के अनुसार काव्य या नाट्य में वर्णित नायक-नायिका आदि पात्रों को आलम्बन विभाव कहते हैं।

2.    उद्दीपन विभाव – स्थायी भाव को उद्दीप्त या तीव्र करने वाले कारण उद्दीपन विभाव होते हैं।

नायक नायिका का रूप सौन्दर्य, पात्रों की चेष्टाएँ, ऋतु, उद्यान, चाँदनी, देश-काल आदि उद्दीपन विभाव होते हैं।

इन्हें दो भागों में विभाजित किया जाता है –

1.    विषयनिष्ठ उद्दीपन विभाव

2.    बाह्य उद्दीपन विभाव।

शारीरिक चेष्टाएँ, हाव-भाव विषयनिष्ठ उद्दीपन विभाव तथा प्राकृतिक वातावरण, देशकाल आदि बाह्य उद्दीपन विभाव होते हैं।

3.    अनुभाव

’अनुभावो भाव बोधक’ अर्थात् भाव का बोध कराने वाले अनुभाव होते हैं।

रसानुभूति में विभाव कारण रूप हैं तो अनुभाव कार्य रूप होते हैं। अनुभव कराने के कारण ही ये अनुभाव कहलाते हैं।

आलम्बन उद्दीपन विभाव द्वारा रस को पुष्ट करने वाली शारीरिक मानसिक अथवा अनायास होने वाली चेष्टाएँ अनुभाव कहलाती हैं।

भरत मुनि ने अनुभााव के तीन भेद (आंगिक, वाचिक, सात्त्विक) किए हैं। भानुदत्त ने इसके चार भेद माने जो परवर्ती आचार्यों ने स्वीकार किए –

1.    आंगिक या कायिक अनुभाव – शरीर की चेष्टाओं से व्यक्त कार्य, जैसे-भू्र संचालन, आलिंगन, कटाक्षपात, चुम्बन आदि आंगिक अनुभाव होते हैं।

2.    वाचिक अनुभाव – वाणी के द्वारा मनोभावों की अभिव्यक्ति (परस्परालाप) इसमें होती है, इसे ’मानसिक’ अनुभाव भी कहा गया है।

3.    सात्विक अनुभाव – ये अन्तःकरण की वास्तविक दशा के प्रकाशक होते हैं। सत्व से उत्पन्न होने के कारण इन्हें सात्विक कहा जाता है। सात्विक अनुभाव आठ हैं-स्तम्भ, स्वेद, रोमांच, वेपथु, स्वरभंग, वैवर्ण्य, अश्रु और प्रलय।

4.    आहार्य अनुभाव – नायक-नायिका के द्वारा पात्रानुसार, वेशभूषा, अलंकार आदि को धारण करना अथवा देशकाल का कृत्रिम रूप में उपस्थापन करना आहार्य अनुभाव कहलाता है।

4.    व्यभिचारी (संचारी) भाव

विविधम् आभिमुख्येन रसेषु चरन्तीति व्याभिचारिणः

व्यभिचारी (संचारी) भाव स्थायी भाव के साथ-साथ संचरण करते हैं, इनके द्वारा स्थायी भाव की स्थिति की पुष्टि होती है। एक रस के स्थायी भाव के साथ अनेक संचारी भाव आते हैं तथा एक संचारी किसी एक स्थायी भाव के साथ या रस के साथ नहीं रहता है, वरन् अनेक रसों के साथ संचरण करता है, यही उसकी व्यभिचार की स्थिति है।

संचारी भाव उसी प्रकार उठते हैं और लुप्त होते हैं जैसे जल में बुदबुदे और लहरें उठती हैं और विलीन होती रहती है।

भरत मुनि ने तैंतीस संचारी भावों का उल्लेख किया है

·          निर्वेद

·          ग्लानि

·          शंका

·          असूया

·          मद

·          श्रम

·          आलस्य

·          दैन्य

·          चिन्ता

·          मोह

·          स्मृति

·          धृति

·          व्रीङा

·          चपलता

·          हर्ष

·          आवेग

·          जङता

·          गर्व

·          विषाद

·          औत्सुक्य

·          निद्रा

·          अपस्मार

·          सुप्त

·          विबोध

·          अमर्ष

·          अवहित्था

·          उग्रता

·          मति

·          व्याधि

·          उन्माद

·          मरण

·          त्रास

·          वितर्क

रसों के प्रकार

नाट्यशास्त्र में आठ स्थायी भावों और उन पर आधृत आठ रसों की विवेचना प्रस्तुत की लेकिन पश्चवर्ती आचार्यों ने रसों की संख्या नौ निर्धारित की

’शृंगार हास्य करुण रौद्र वीर भयानकाः।

वीभत्साद्भुतसंज्ञो चेच्छान्तोξपि नवमो रसः।’

’नागानन्द’ रचना के पश्चात् ’शान्त रस’, महाकवि सूरदास की रचनाओं से ’वात्सल्य रस’, ’भक्तिरसामृत सिंधु’ और ’उज्जवलनीलमणि’ नामक ग्रन्थों की रचना के पश्चात् ’भक्ति रस’ को स्वीकार किया गया। इस प्रकार रसों की कुल संख्या ग्यारह हो गई।

रस के उदाहरण

1.    शृंगार रस

शृंगार रस को रसराज कहा जाता है।

स्थायी भाव रति

आलम्बन विभाव नायक या नायिका

उद्दीपन विभाव नायिका के कुच, नितम्बादि अंग, एकान्त, वन-उपवन, चन्द्र-ज्यौत्स्ना, वसन्त, पुष्प, नायिका अथवा अनुभाव के चेष्टाएँ हावभाव, तिरछी चितवन, मुस्कान।

संचारी भाव तैंतीस संचारियों में उग्रता, मरण, आलस्य, जुगुप्सा को छोङकर शेष सभी संचारी भाव, मुख्यतः लज्जा, शर्म, चपलता।

शृंगार रस दो भागों में विभक्त किया गया है –

1)   संयोग शृंगार

आचार्य धनंजय ’जहाँ अनुकुल विलासी एक-दूसरे के दर्शन-स्पर्शन इत्यादि का सेवन करते हैं। वह आनन्द से युक्त संयोग शृंगार कहलाता है।’

आचार्य विश्वनाथ – ’जहाँ एक-दूसरे के प्रेम में अनुरक्त नायक-नायिका दर्शन-स्पर्शन आदि का सेवन करते हैं वह संयोग शृंगार कहलाता है।’

संयोग- शृंगार के वण्र्य विषय में प्रेम की उत्पत्ति, आलम्बन एवं क्रीङाएँ होती हैं। उत्पत्ति प्रत्यक्ष दर्शन, गुण श्रवण, चित्र दर्शन या स्वप्न दर्शन द्वारा होती है। यथा-

कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।

भरे भौन में करत हैं नैनन ही सौं बात।। (बिहारी)

संयोग शृंगार रस के अन्य उदाहरण –

बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय।

सौंह करै भौंहनु हंसे देन कहै नटि जाय।। (बिहारी)

देखन मिस मृग-बिहँग-तरु, फिरति बहोरि-बहोरि।

निरखि-निरखि रघुवीर-छवि, बाढी प्रीति न थोरि।।

देखि रूप लोचन ललचाने। हरखे जनु निज निधि पहिचाने।।

थके नयन रघुपति-छवि देखी। पलकन हू परहरी निमेखी।।

अधिक सनेह देह भइ भोरी। सरद-ससिहि जनु चितव चकोरी।।

लोचन-मग रामहिं उर आनी। दीन्हे पलक-कपाट सयानी।।

(रामचरितमानस)

2)   वियोग शृंगार

आचार्य भोज ’’जहाँ रति नामक भाव प्रकर्ष को प्राप्त हो, लेकिन अभीष्ट को पा सके। वहाँ विप्रलम्भ शृंगार कहा जाता है।’’

आचार्य भानुदत्त – ’’युवा और युवती की परस्पर मुदित पंचेन्द्रियों के पारस्परिक सम्बन्ध का अभाव अथवा अभीष्ट की अप्राप्ति विप्रलम्भ है।’’

वियोग शृंगार की 10 दशाएँ निर्धारित हैं

1. अभिलाषा 2. चिन्ता 3. स्मरण 4. गुणकथन 5. उद्वेग 6. प्रलाप 7. उन्माद 8. व्याधि 9. जङता 10. मरण।

वियोग शृंगार के चार प्रकार हैं

1.    पूर्वराग

2.    मान

3.    प्रवास

4.    भिशाप या करुणात्मक।

यथा –

घङी एक नहिं आवडै, तुम दरसण बिन मोय।

तुम हो मेरे प्राण जी, काँसू जीवन होय।।

धान न भावै, नींद न आवै, विरह सतावे मोइ।

घायल सी घूमत फिरुं रे, मेरो दरद न जाणै कोइ।।


(मीरा)

वियोग शृंगार रस के अन्य उदाहरण –

बैठि, अटा सर औधि बिसूरति, पाय सँदेस नी ’श्रीपति’ पी के।

देखत छाती फटै निपटै, उछटै, जब बिज्जु-छटा छबि नीके।।

कोकिल कूकंै, लगैं तक लूकैं, उठैं हिय हूकैं बियोगिनि ती के।

बारि के बाहक, देह के दाहक, आये बलाहक गाहक जी के।।


(श्रीपति)

अति मलीन बृखभानु-कुमारी,

अध मुख रहित, उरध नहिं चितवति, ज्यों गथ हारे थकित जुआरी।

छूटे चिकुर, बदन कुम्हिलानो, ज्यों नलिनी हिमकर की मारी।।

1.    हास्य रस

·          स्थायी भाव – हास

·          आलम्बन विभाव – हास्यास्पद वचन, विकृत वेश या विकृत कार्य

·          उद्दीपन विभाव – अनुपयुक्त वचन, अनुपयुक्त वेश, अनुपयुक्त चेष्टा

·          अनुभाव – मुख का फुलाना, हँसना, आँखें बन्द होना, ओठ नथूने आदि का स्फुरण।

·          संचारी भाव – चापल्य, उत्सुकता, निद्रा, आलस्य, अवहित्था।

हास्य रस में छः प्रकार के हास्य का उल्लेख होता है।

·          स्मित – आँखों में खुशी झलकना

·          हसित – मुस्कुराना

·          विहसित – दंतावली दिखाई देना

·          अवहसित – कंधे उचकाना एवं हँसी की आवाज आना

·          अतिहसित – जोर-जोर से ठहाके लगाना

·          अपहसित – हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाना, इधर-उधर गिरना।

यथा –

नाक चढै सी-सी करै, जितै छबीली छैल।

फिरि फिरि भूलि वही गहै, प्यौ कंकरीली गैल।।

(बिहारी)

हास्य रस के अन्य उदाहरण –

सखि! बात सुनो इक मोहन की, निकसी मटुकी सिर रीती ले कै।

पुनि बाँधि लयो सु नये नतना, रू कहँू-कहँू बुन्द करी छल कै।।

निकसी उहि गैल हुते जहाँ मोहन, लीनी उतारि तबै चल कै।

पतुकी धरि स्याम खिसाय रहे, उत ग्वारि हँसी मुख आँचल कै।।

तेहि समाज बैठे मुनि जाई। हृदय रूप-अहमिति अधिकाई।।

तहँ बैठे महेस-गन दोऊ! विप्र बेस गति लखइ न कोऊ।।

सखी संग दै कुँवर तब चलि जनु राज-मराल।

देखत फिरइ महीप सब कर-सरोज जय-माल।।

जेहि दिसि नारद बैठे फूली। सो दिसि तेहि न बिलोकी भूली।।

पुनि-पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर-गन मुसकाहीं।।

3.    करुण रस

स्थायी भाव शोक

आलम्बन विभाव प्रिय व्यक्ति का दुख, मृत शरीर, इष्टनाश।

उद्दीपन विभाव आलम्बन का रुदन, मृतक दाह, यादें, स्मरण।

अनुभाव अश्रुपात, विलाप, भाग्यनिन्दा, भूमिपतन, उच्छवास।

संचारी भाव निर्वेद्र, मोह, अपस्मार, व्याधि, ग्लानि, स्मृति, श्रम, विषाद, जङता, उन्माद।

यथा –

राघौ गीध गोद करि लीन्हो।

नयन सरोज सनेह सलिल सुचि मनहुं अरघ जल दीन्हों।।

करुण रस के अन्य उदाहरण

प्रिय मृत्यु का अप्रिय महा संवाद पाकर विष-भरा।

चित्रस्थ-सी, निर्जीव सी, हो रह गयी हत उत्तरा।।

संज्ञा-रहित तत्काल ही वह फिर धरा पर गिर पङी।

उस समय मूर्छा भी अहो! हितकर हुई उसको बङी।।

फिर पीटकर सिर और छाती अश्रु बरसाती हुई।

कुररी-सदृश सकरुण गिरा से दैन्य दरसाती हुई।।

बहुविधि विलाप-प्रलाप वह करने लगी उस शोक में।

निज प्रिय-वियोग समान दुख होता न कोई लोक में।।

देखि सुदामा की दीन दसा करूना करि कै करुनानिधि रोये।

पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैननि के जल सों पग धोये।।

4.    रौद्र रस

·          स्थायी भाव – क्रोध

·          आलम्बन विभाव – अपराधी व्यक्ति, शत्रु, विपक्षी, द्रोही, दुराचार।

·          उद्दीपन विभाव – कटुवचन, शत्रु के अपराध, शत्रु की गर्वोक्ति।

·          अनुभाव – नेत्रों का रक्तिम होना, त्यौंरो चढ़ाना, ओठ चबाना।

·          संचारी भाव – मद, उग्रता, अमर्ष, स्मृति, जङता, गर्व।

यथा –

तुमने धनुष तोङा शशिशेखर का,

मेरे नेत्र देखो,

इनकी आग में डूब जाओेगे सवंश राघव।

गर्व छोङो

काटकर समर्पित कर दो अपने हाथ।

मेरे नेत्र देखो।

रौद्र रस के अन्य उदाहरण –

श्री कृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्रोध से जलने लगे।

सब शोक अपना भूलकर करतल-युगल मलने लगे।।

संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पङे।

करते हुए यह घोषणा वे हो गये उठकर खङे।।

उस काल मारे क्रोध के तनु काँपने उनका लगा।

मानो हवा के जोरे से सोता हुआ सागर जगा।

मुख बालरवि सम लाल होकर ज्वाल-सा बोधित हुआ।

प्रलयार्थ उनके मिस वहाँ क्या काल ही क्रोधित हुआ।।

भाखे लखन, कुटिल भयी भौंहें।

रद-पट फरकत नैन रिसौहैं।।

कहि न सकत रघुवीर डर, लगे वचन जनु बान।

नाइ राम-पद-कमल-जुग, बोले गिरा प्रसाद।।

भाषे लखन कुटिल भई भौंहे, रद-पट फरकत नयन रिसौहें।

रघुवंशिन्ह मैं जहँ कोऊ होई, तेहि समाज अह कहई न कोई।।(रौद्र)

आश्रय – लक्ष्मण

विषय (आलंबन) – जनक के वचन

उद्दीपन विभाव – पूर्वजों की वीरता, जनक के वचन की कठोरता

अनुभाव – होठ फङकना, भौंहे टेढी होना

संचारी भाव – अमर्श, गर्व

स्थायी भाव – क्रोध

रस – रौद्र

उस काल मारे क्रोध के तूने काँपने उसका लगा,मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा।

मुख बाल रवि सम लाल होकर ज्वाला सा बोधित हुआ, प्रलयार्थ उनके मिस वहाँ, क्या काल ही क्रोधित हुआ।। (रौद्र)

·          आश्रय – योद्धा

·          विषय (आलंबन) – शत्रु

·          उद्दीपन विभाव – शत्रु की कङवी बातें

·          अनुभाव – शरीर का काँपना, मुख का लाल होना

·          संचारी भाव – अमर्श, गर्व, उग्रता

·          स्थायी भाव – क्रोध

·          रस – रौद्र

गर्भ के अर्भक काटन को, पटुधार कुठार कराल है जाको।

सोई हौं बूझत राजसभा, धनु को दल्यौ हौं दलिहौं बल ताको।

लघु आनन उतर देत बङो, लरिहै मरिहै करिहै कछु साको।

गोरो गरुर गुमान भर्यो, कहु कौसिक छोटो सो छोटो है काको ।। (रौद्र)

·          आश्रय – परशुरामजी

·          विषय (आलंबन) – लक्ष्मण

·          उद्दीपन विभाव – लक्ष्मण द्वारा परशुराम का परिहास, अपमान एवं व्यंग्यपूर्ण वचन

·          अनुमान – कुठार दिखाना, दाँत पीसना, आँखे लाल करना, भौंहे टेढी करना

·          संचारी भाव – गर्व, आवेग, उग्रता, अमर्श

·          स्थायी भाव – क्रोध

·          रस – रौद्र

5.    वीर रस

·          स्थायी भाव – उत्साह

·          आलम्बन विभाव – शत्रु, शत्रु का उत्कर्ष।

·          आश्रय – नायक (वीर पुरुष)।

·          उद्दीपन विभाव – रिपु की गर्वोक्ति, मारु आदि राग, रणभेरी, रण कोलाहल।

·          अनुभाव – अंग स्फुरण, रक्तिम नेत्र, रोमांच।

·          संचारी भाव – हर्ष, धृति, गर्व, असूया आदि।

 वीर रस के अन्तर्गत चार प्रकार के वीरों का उल्लेख किया गया है –

1)   युद्धवीर (भीम, दुर्योधन)

2)   धर्मवीर (युधिष्ठिर)

3)   दानवीर (कर्ण)

4)   दयावीर (राजा शिवि)

वीर रस के उदाहरण –

सकल सूरसामंत, समरि बल जंत्र मंत्र तस।

उट्ठिराज प्रथिराज, बाग मनो लग वीर नट।

कढत तेग मनो वेग, लागत मनो बीज झट्ट घट।

थकि रहे सूर कौतिग गिगन, रगन मगन भइ श्रोन धर।

हर हरिष वीर जग्गे हुलस हुरव रंगि जब रत्त वर।।


(चन्दबरदाई)

स्व-जाति की देख अतीव दुर्दशा

विगर्हणा देख मनुष्य-मात्र की।

निहार के प्राणि-समूह-कष्ट को

हुए समुत्तेजित वीर-केसरी।

हितैषणा से निज जन्म-भूमि की

अपार आवेश ब्रजेश को हुआ।

बनी महा बंक गठी हुई भवे,

नितान्त विस्फारित नेत्र हो गये।।

 

मैं सत्य कहता हूँ सखे! सुकुमार मत जानो मुझे।

यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा जानो मुझे।

हे सारथे! हैं द्रोण क्या? आवें स्वयं देवेन्द्र भी।

वे भी न जीतेंगे समर में आज क्या मुझसे कभी।।

6.    भयानक रस

·          स्थायी भाव – भय

·          आलम्बन विभाव – बाघ, चोर, भयंकर वन, शक्तिशाली का कोप, भयानक दृश्य।

·          उद्दीपन विभाव – आलम्बन की चेष्टाएँ, नीरवता, कोलाहल।

·          अनुभाव – गिङगिङाना, श्लथ होना, आँखें बन्द करना, स्वर भंग, पलायन, मूर्छा ।

·          संचारी भाव – दैन्य, जङता, आवेग, शंका, चिन्ता आदि।

यथा –

और जब आई घोर काल रात्रि,

वे आततायी टूट पङे अबलाओं पर,

नोंचते, चबाते उनका माँस, भोगते,

कर्णबेधी-चीत्कार, हाहाकार,

दुराचार दृष्टिवेधी

देख नहीं सकी अबला, अचेत हो गई -सुलक्षणा

भयानक रस के अन्य उदाहरण –

समस्त सर्पों सँग श्याम ज्यों कढे,

कलिंद की नन्दिनि के सु-अंक से।

खङे किनारे जितने मनुष्य थे,

सभी महाशंकित भीत हो उठे।।

हुए कई मूर्छित घोर त्रास से,

कई भगे, मेदिनि में गिरे कई।

हुई यशोदा अति ही प्रकंपिता,

ब्रजेश भी व्यस्त-समस्त हो गये।।

उधर गरजती सिंधु लहरियाँ, कुटिल काल के जालों सी।

चली आ रही फैन उगलती, फन फैलायें व्यालों सी।।


(जयशंकर प्रसाद)

7.     वीभत्स रस

·          स्थायी भाव – जुगुप्सा

·          आलम्बन विभाव – घृणास्पद वस्तु या कार्य, माँस, रक्त, अस्थि, श्मशान, दुर्गन्ध।

·          उद्दीपन विभाव – आलम्बन के कार्य, रक्त, माँस आदि का सङना, कुत्ते-गिद्ध आदि द्वारा शव नोंचना।

·          अनुभाव – मुँह मोङना, नाक-आँख बंद करना, थूकना।

·          संचारी भाव – मोह, असूया, अपस्मार, आवेग, व्याधि जङता आदि।

वीभत्स रस के उदाहरण –

कहाँ कमध कहाँ मथ्थ कहाँ कर चरन अंत रूरि।

कहाँ कध वहि तेग, कहौं सिर जुट्टि फुट्टि उर।

कहौ दंत मत्त हय षुर षुपरि, कुम्भ भ्रसुंडह रूंड सब।

हिंदवान रान भय भान मुष, गहिय तेग चहुवान जब।।


(चन्दबरदाई)

सिर पर बैठो काग आंखि दोउ खात निकारत

खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनन्द डर धारत।

8.    अद्भुत रस

·          स्थायी भाव – विस्मय (आश्चर्य)

·          आलम्बन विभाव – अलौकिक या आश्चर्यजनक वस्तु

·          उद्दीपन विभाव – आलम्बन का गुण या कार्य।

·          अनुभाव – रोमाँच, कँप, स्वेद, संभ्रम।

·          संचारी भाव – वितर्क, भ्रान्ति, हर्ष, शंका, आवेग, मोह।

यथा –

एक अचम्भा देख्यौ रे भाई।

ठाढा सिंह चरावै गाई।।

जल की मछली तरवर ब्याई।

पकङि बिलाइ मुरगै खाई।।

(कबीर)

अद्भुत रस के अन्य उदाहरण –

अखिल भुवन चर-अचर जग हरिमुख में लखि मातु।

चकित भयी, गदगद वचन, विकसित दृग, पुलकातु।।

दिखरावा निज मातहि उद्भुत रूप अखंड।

रोम-रोम प्रति लागे कोटि-कोटि ब्रह्मांड।।

अगनित रवि-ससि सिव चतुरानन।

बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन।

तनु पुलकित, मुख बचन न आवा।

नयन मूँदि चरनन सिर नावा।।

9.    शान्त रस

·          स्थायी भाव – निर्वेद या वैराग्य

·          आलम्बन विभाव – निर्वेद उत्पन्न करने वाली वस्तु, सांसारिक नश्वरता।

·          उद्दीपन विभाव – सत्संग, पुण्याश्रम, तीर्थ, एकान्त।

·          अनुभाव – रोमांच, दृढ़ता, कथन, चेतावनी, संकल्प।

·          संचारी भाव – धृति, मोह, निर्वेद, हर्ष, विमर्श।

·          आश्रय – ज्ञानी व्यक्ति।

यथा –

जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी।

फूटा कुम्भ जल जलहिं समाना यह तथ कह्यो गियानी।।

(कबीर)

शान्त रस के अन्य उदाहरण –

थिर नहिं जउबन थिर नहिं देह

थिर नहिं रहए बालमु सओं नेह।

थिर जनु जानह ई संसार

एक पए थिर रह पर उपकार।।

(विद्यापति)

बुद्ध का संसार त्याग –

क्या भाग रहा हूँ भार देख?

तू मेरी ओर निहार देख-

मैं त्याग चला निस्सार देख।

अटकेगा मेरा कौन काम।

ओ क्षणभंगुर भव! राम-राम!

रूपाश्रय तेरा तरुण गात्र,

कह कब तक है वह प्राण-मात्र?

भीतर भीषण कंकाल-मात्र,

बाहर-बाहर है टीमटाम।

ओ क्षणभंगुर भव! राम-राम!

10.  वात्सल्य रस

·          स्थायी भाव – वत्सलता

·          आलम्बन विभाव – बच्चा (संतान)

·          उद्दीपन विभाव – आलम्बन की चेष्टाएँ

·          अनुभाव – स्नेह से देखना, आलिंगन, चुम्बन, पालने झुलाना।

·          संचारी भाव – हर्ष, गर्व आदि।

·          आश्रय – माता-पिता।

यथा –

जसोदा हरि पालने झुलावै

हलरावै दुलराय मल्हावै जोइ सोई कछु गावै।

मेरे लाल को आओ निन्दरिया काहे न आनि सुलावै।

कबहुँ पलक हरि मूंद लेत कबहुँ अधर फरकावै।।


(सूरदास)

वात्सल्य रस के अन्य उदाहरण –

हरि अपने रँग में कछु गावत।

तनक तनक चरनन सों नाचत, मनहिं-मनहिं रिझावत।

बाँहि उँचाई काजरी-धौरी गैयन टेरि बुलावत।

माखन तनक आपने कर ले तनक बदन में नावत।

कबहुँ चितै प्रतिबिंब खंभ में लवनी लिये खवावत।

दुरि देखत जसुमति यह लीला हरखि अनन्द बढ़ावत।।

मैया कबहुँ बढे़गी चोटी।

कितनी बार मोहिं दूध पियत भई यह अजहूँ है छोटी।।


(सूरदास)

11.  भक्ति रस

·          स्थायी भाव – भगवद्विषयक रति

·          आलम्बन विभाव – आराध्य देव, गुरुजन, इष्ट

·          उद्दीपन विभाव – आराध्य या आलम्बन का रूप, उनके कार्य एवं लीलाएँ।

·          अनुभाव – अश्रु, रोमांच, कंठावरोध, गद्गद् होना, नेत्र बंद होना।

·          संचारी भाव – जगुप्सा, आलस्य आदि के अतिरिक्त सभी मुख्यतः हर्ष, आवेग, दैन्य, स्मरण।

 शास्त्रों में नौ प्रकार की भक्ति (नवधाभक्ति) का उल्लेख मिलता है–

1. श्रवण 2. कीर्तन 3. स्मरण 4. पाद सेवन 5. अर्चन 6. वंदन 7. दास्य 8. साख्य 9. आत्म निवेदन।

भक्ति रस के उदाहरण –     

राम जपु राम जपु राम बावरे।

घोर भव नीर निधि नाम निज नाव रे।।


(तुलसी)

बसौ मेरे नैनन में नन्दलाल।

मोहनी सूरत सांवरी सूरत, नैणा बने विसाल।

अधर सुधारस मुरली राजती, उर वैयन्ती माल।

क्षुद्र घटिका कटि तट सोभित नुपुर सबद रसाल।

मीरा के प्रभु सन्तन सुखदाई, भगत बछल गोपाल।।


(मीरा)

जाको हरि दृढ करि अंग कर्यो।

सोई सुसील, पुनीत, बेद-बिद विद्या-गुननि भर्यो।

उतपति पांडु-सुतन की करनी सुनि सतपंथ डर्यो।

ते त्रैलोक्य-पूज्य, पावन जस सुनि-सुनि लोक तर्यो।

जो निज धरम बेद बोधित सो करत न कछु बिसरयो।

बिनु अवगुन कृकलासकूप मज्जित कर गहि उधर्यो।।

  • Tags :
  • हिंदी व्याकरण रस

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