अध्याय-3: अतीत में दबे पाँव
“अतीत में दबे पाँव’
साहित्यकार ओम थानवी’ द्वारा विरचित एक यात्रा-वृतांत है। वे पाकिस्तान स्थित सिंधु
घाटी सभ्यता के दो महानगरों। मोहनजोदड़ो (मुअनजोदड़ो) और हड़प्पा के अवशेषों को देखकर
अतीत के सभ्यता और संस्कृति की कल्पना करते हैं। अभी तक जितने भी पुरातात्विक प्रमाण
मिले उनको देखकर साहित्यकार अपनी कल्पना को साकार करने की चेष्टा करते हैं।
लेखक का मानना है कि
मोहनजोदड़ो और हड़प्पा प्राचीन भारत के ही नहीं बल्कि विश्व के दो सबसे पुराने और योजनाबद्ध
तरीके से बसे शहर माने जाते हैं। वे मोहनजोदड़ो को ताम्रकाल का सबसे बड़ा शहर मानते
हैं। लेखक के अनुसार मोहनजोदड़ो सिंधु घाटी सभ्यता का केंद्र है और शायद अपने जमाने
की राजधानी जैसा। आज भी इस आदिम शहर की सड़कों और गलियों में सैर की जा सकती है। यह
शहर अब भी वहीं है, जहाँ कभी था। आज भी वहाँ के टूटे घरों की रसोइयों में गंध महसूस
की जा सकती है।
आज भी शहर के किसी सुनसान
रास्ते पर खड़े होकर बैलगाड़ी की रुन-झुन की आवाजें सुनी जा सकती हैं। खंडहर बने घरों
की टूटी सीढ़ियाँ अब चाहे कहीं न ले जाती हों, चाहे वे आकाश की ओर अधूरी रह गई हों,
लेकिन उन अधूरे पायदानों पर खड़े होकर यह अनुभव किया जा सकता है कि आप दुनिया की छत
पर चढ़ गए हैं। वहाँ चढ़कर आप इतिहास को नहीं बल्कि उससे कहीं आगे देख रहे हैं।
मोहनजोदड़ो में सबसे
ऊंचा चबूतरा बौद्ध स्तूप है। अब यह केवल मात्र एक टीला बनकर रह गया है। इस चबूतरे पर
बौद्ध भिक्षुओं के कमर भी हैं। लेखक इसे नागर भारत का सबसे पुराना लैंडस्केप मानते
हैं। इसे देखकर रोमांचित होना स्वाभाविक है। यह स्तूपवाला चबूतरा शहर के एक खास हिस्से
में स्थित है। इस हिस्से को पुरातत्व के विद्वान ‘गढ़’ कहते हैं। ये ‘गढ़’ कभी-न-कभी
राजसत्ता या धर्मसत्ता के केंद्र रहे होंगे ऐसा भी माना जा सकता है। इन शहरों की खुदाई
से यह स्पष्ट हो जाता है कि बाकी बड़ी इमारतें, सभा-भवन, ज्ञानशाला सभी अतीत की चीजें
कही जा सकती है परंतु यह ‘गढ़ उस द्वितीय वास्तुकला कौशल के बाकी बचे नमूने हैं।
मोहनजोदड़ो शहर की संरचना
नगर नियोजन का अनूठा प्रमाण है, उदाहरण है। यहाँ की सड़कें अधिकतर सीधी हैं या फिर
आडी हैं। आज के वास्तुकार इसे ‘ग्रिड प्लान’ कहते हैं। आज के नगरों के सेक्टर कुछ इसी
नियोजन से मेल खाते हैं। आधुनिक परिवेश के इन सेक्टरवादी नागरिकों में रहन-सहन को लेकर
नीरसता आ गई है। प्रत्येक व्यक्ति अपने-आप में खोया हुआ है, दुनियादारी के अपनत्व में
उसे विश्वास नहीं रहा है।
मोहनजोदड़ो शहर में
जो स्तूप मिला है उसके चबूतरे के गढ़ के पीछे ‘उच्च’ वर्ग की बस्ती है। इस बस्ती के
पीछे पाँच किलोमीटर दूर सिंध नदी बहती है। अगर इन उच्च वर्गीय बस्ती से दक्षिण की तरफ़
नजर दौड़ाएँ तो दूर तक खंडहर, टूटे-फूटे घर दिखाई पड़ते हैं। ये टूटे-फूटे घर शायद
कारीगरों के रहे होंगे। चूकिनिम्न वर्ग के घर इतनी मजबूत सामग्री के नहीं बने होंगे
शायद इसीलिए उनके अवशेष भी. उनकी गवाही नहीं देते अर्थात इस पूरे शहर में गरीब बस्ती
कहाँ है उसके अवशेष भी नहीं मिलते। टीले की दाई तरफ़ एक लॉबी दिखती है। इसके आगे एक
महाकुंड है। इस गली को इस धरोहर के प्रबंधकों ने ‘देव मार्ग’ कहा है।
यह महाकुंड चालीस फुट
लंबा और पच्चीस फुट चौड़ा है। यह उस सभ्यता में सामूहिक स्नान के किसी अनुष्ठान का
प्रतीक माना जा सकता है। इसकी गहराई रगत फुट है तथा उत्तर और दक्षिण में सीढ़ियाँ उतरती
हैं। इस महाकुंड के तीन तरफ़ साधुओं के कक्ष बने हुए हैं उत्तर में एक पंक्ति में आठ
स्नानघर हैं। यह वास्तुकला का एक नमूना ही कहा जाएगा क्योंकि इन सभी स्नानघरों के मुँह
एक-दूसरे के सामने नहीं खुलते। कुंड के तल में पक्की ईंटों का जमाव है ताकि कुंड का
पानी रिस न सके और अशुद्ध पानी कुंड में न आ सके। कुंड में पानी भरने के लिए पास ही
एक कुआँ है। कुंड से पानी बाहर निकालने के लिए नालियाँ बनी हुई हैं। ये नालियाँ पक्की
ईंटों से बनी हैं तथा ईंटों से ढकी हुई भी हैं। पुरातात्विक वैज्ञानिकों का मानना है
कि पानी निकासी का ऐसा सुव्यवस्थित बंदोबस्त इससे पहले इतिहास में दूसरा नहीं है।
महाकुंड के उत्तर-पूर्व
में एक बहुत लंबी इमारत के खंडहर बिखरे पड़े हैं। इस इमारत के बीचोंबीच एक खुला आँगन
है। इसके तीन तरफ बरामदे हैं। ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि इसके साथ कभी छोटे-छोटे
कमरे भी होंगे। ये कमरे और बरामदे धार्मिक अनुष्ठानों में ज्ञानशालाओं का काम देते
थे। इस दृष्टि से देखें तो इस इमारत को एक ‘धार्मिक महाविद्यालय’ कहा जा सकता है। गढ़
से थोड़ा आगे । कुछ छोटे टीलों पर बस्तियाँ हैं। इन बस्तियों को ‘नीचा नगर’ कहकर पुकारा
जाता है।
– पूर्व में बसी बस्ती
‘अमीरों की बस्ती’ है। आधुनिक युग में अमीरों की बस्ती पश्चिम में मानी जाती है। यानि
कि बड़े-बड़े घर, चौड़ी सड़कें, ज्यादा कुएँ। मोहनजोदड़ो में यह उलटा था। शहर के बीचोंबीच
एक तैंतीस फुट चौड़ी लंबी सड़क है। मोहनजोदड़ो में बैलगाड़ी होने के प्रमाण मिले हैं
शायद इस सड़क पर दो बैलगाड़ियाँ एक साथ आसानी से आ-जा सकती हैं। यह सड़क बाजार तक जाती
है। इस सड़क के दोनों ओर घर बसे हुए हैं। परंतु इन घरों की पीठ सड़कों से सटी हुई हैं।
कोई भी घर सड़क पर नहीं खुलता। लेखक के अनुसार,
“दिलचस्प संयोग है कि
चंडीगढ़ में ठीक यही शैली पचास साल पहने लू काबूजिए ने इस्तेमाल की।” चंडीगढ़ का कोई
घर सड़क की ।
तरफ़ नहीं खुलता। मुख्य
सड़क पहले सेक्टर में जाती है फिर आप किसी के घर जा सकते हैं। शायद चंडीगढ़ के वास्तुकार
का—जिए ने यह सीख मोहनजोदड़ो से ही ली हों? ऐसा भी अनुमान लगाया जा सकता है। शहर के
बीचोंबीच लंबी सड़कें और दोनों तरफ़ समांतर ढकी हुई नालियाँ हैं। बस्ती में ये नालियाँ
इसी रूप में हैं। प्रत्येक घर में एक स्नानघर भी है। घर के अंदर से मैले पानी की नालियाँ
बाहर हौदी तक आती हैं और फिर बड़ी नालियों में आकर मिल जाती हैं।
कहीं-कहीं वे खुली हो
सकती हैं परंतु अधिकतर वे ऊपर से ढकी हुई हैं। इस प्रकार सहज ही यह अनुमान लगाया जा
सकता है कि मोहनजोदड़ो के नागरिक स्वास्थ्य के प्रति कितने सचेत थे। शहर के कुएँ भी
दूर से ही अपनी ओर प्रत्येक व्यक्ति का ध्यान खींचते हैं। ये कुएँ पक्की-पक्की ईंटों
के बने हुए हैं। पुरातत्व विद्वानों के अनुसार केवल मोहनजोदड़ो में ही सात सौ के लगभग
कुएँ हैं। इतिहासकार ऐसा मानते हैं कि सिंधु घाटी की सभ्यता संसार में पहली ज्ञात संस्कृति
है जो कुएँ खोदकर भू-जल तक पहुँची। लेखक यह भी प्रश्न उठाते हैं कि नदी, कुएँ, : कुंड
स्नानघर और बेजोड़ पानी निकासी को क्या हम सिंधु घाटी की सभ्यता को जल संस्कृति कह
सकते हैं।
मोहनजोदड़ो की बड़ी
बस्ती में घरों की दीवारें ऊँची और मोटी हैं। मोटी दीवार से यह अर्थ लगाया जा सकता
है कि यह दो मंजिला घर होगा। इन घरों की एक खास बात यह है कि सामने की दीवार में केवल
प्रवेश द्वार है कोई खिड़की नहीं है। ऊपर की मंजिल में खिड़कियाँ हैं। कुछ बहुत बड़े
घर भी हैं शायद इनमें कुछ लघु उद्योगों के कारखाने होंगे। ये सभी छोटे-बड़े घर एक लाइन
में हैं। अधिकतर घर लगभग तीस गुणा तीस फुट के हैं। सभी घरों की वास्तुकला लगभग एक जैसी
है। एक बहुत बड़ा घर है जिसमें दो आँगन और बीस कमरे हैं। इस घर को ‘मुखिया’ का घर कहा
जा सकता है। घरों की खुदाई से एक दाढ़ीवाले याजक-नरेश’ और एक प्रसिद्ध ‘नर्तकी’ की
मूर्तियाँ भी मिली हैं।
‘नर्तकी’ की मूर्ति
अब दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखी हुई है। यहीं पर एक बड़ा घर भी है जिसे
‘उपासना केंद्र’ भी समझा जा सकता है। इसमें आमने-सामने की दो चौड़ी सीढ़ियाँ ऊपर की
मंजिल की ओर जाती हैं। ऊपर की मंजिल अब बिलकुल ध्वस्त हो चुकी है। नगर के पश्चिम में
एक ‘रंगरेज का कारखाना’ भी मिला है जिसे अब सैलानी बड़े चाव से देखते हैं। घरों के
बाहर कुछ कुएँ सामूहिक प्रयोग के लिए हैं। शायद ये कुएँ कर्मचारियों और कारीगरों के
लिए घर रहे होंगे।
बड़े घरों में कुछ छोटे
कमरे हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि शहर की आबादी काफ़ी रही होगी। एक विचार
यह भी हो सकता है कि ऊपर की मंजिल में मालिक और नीचे के घरों में नौकर-चाकर रहते होंगे।
कुछ घरों में सीढ़ियाँ नहीं हैं शायद इन घरों में लकड़ी की सीढ़ी रही है जो बाद में
नष्ट हो गई होगी। छोटे घरों की बस्ती में संकरी सीढ़ियाँ हैं। इन सीढ़ियों के पायदान
भी ऊँचे हैं। शायद ऐसा जगह की कमी के कारण होता होगा।
लेखक ने अपनी यात्रा
के समय जब यह ध्यान दिया कि खिड़कियों और दरवाजों पर छज्जों के निशान नहीं हैं। गरम
इलाकों में ऐसा होना आम बात होती है। शायद उस समय इस इलाके में इतनी कड़ी धूप न पड़ती
हो। यह तथ्य भी पूरी तरह से स्थापित हो चुका है कि उस समय अच्छी खेती होती थी। यहाँ
लोग खेतों की सिंचाई कुओं से करते थे। नहर के प्रमाण यहाँ नहीं मिलते शायद लोग वर्षा
के पानी पर अधिक निर्भर रहते होंगे। बाद में वर्षा कम होने लगी हो और लोगों ने कुओं
से अधिक पानी निकाला होगा। इस प्रकार भू-जल का स्तर काफ़ी नीचे चला गया हो। यह भी हो
सकता है कि पानी के अभाव में सिंधु घाटी के वासी यहाँ से उजड़कर कहीं चले गए हों और
सिंधु घाटी की समृद्ध सभ्यता इस प्रकार नष्ट हो गई हो। लेखक के इस अनुमान से इनकार
नहीं किया जा सकता।
मोहनजोदड़ो के घरों
और गलियों को देखकर तो अपने राजस्थान का भी खयाल हो आया। राजस्थान और सिंध-गुजरात की
दृश्यावली । एक-सी है। मोहनजोदड़ो के घरों में टहलते हुए जैसलमेर के मुहाने पर बसे
पीले पत्थरों के खूबसूरत गाँव की याद लेखक के जहन में ताजा हो आई। इस खूबसूरत गाँव
में हरदम गरमी का माहौल व्याप्त है। गाँव में घर तो है परंतु घरों में लोग नहीं हैं।
कहा जाता है कि कोई डेढ़ सौ साल पहले राजा के साथ तकरार को लेकर इस गाँव के स्वाभिमानी
नागरिक रातोंरात अपना घर-बार छोड़कर चले गए थे। बाद में इन घरों के दरवाजे, खिड़कियाँ
लोग उठाकर ले गए थे। अब ये घर खंडहर में परिवर्तित हो गए हैं।
परंतु ये घर ढहे नहीं।
इन घरों की खिड़कियों, दरवाजों और दीवारों को देखकर ऐसा लगता है जैसे कल की ही बात
हो। लोग चले गए लेकिन वक्त वहीं रह गया। खंडहरों ने उसे वहाँ रोक लिया हो। जैसे सुबह
गए लोग शाम को शायद वापस लौट आएँ।। मोहनजोदड़ो में मिली ठोस पहियोंवाली बैलगाड़ी को
देखकर लेखक को अपने गाँव की बैलगाड़ी की याद आ गई जिसमें पहले दुल्हन । बैठकर ससुराल
आया करती थी। बाद में इन गाड़ियों में आरेवाले पहिए और अब हवाई जहाज से उतरे हुए पहियों
का प्रयोग होने लगा।
NCERT SOLUTIONS FOR CLASS 12 HINDI VITAN CHAPTER 3
अभ्यास प्रश्न (पृष्ठ संख्या 52)
प्रश्न 1. सिंधु सभ्यता
साधन-संपन्न थी, पर उसमें भव्यता का आडंबर नहीं था, कैसे?
उत्तर- सिंधु-सभ्यता
के शहर मुअनजो-दड़ो की व्यवस्था, साधन और नियोजन के विषय में खूब चर्चा हुई है। इस
बात से सभी प्रभावित हैं कि वहाँ की अन्न-भंडारण व्यवस्था, जल-निकासी की व्यवस्था अत्यंत
विकसित और परिपक्व थी। हर निर्माण बड़ी बुद्धमानी के साथ किया गया था; यह सोचकर कि
यदि सिंधु का जल बस्ती तक फैल भी जाए तो कम-से-कम नुकसान हो। इन सारी व्यवस्थाओं के
बीच इस सभ्यता की संपन्नता की बात बहुत ही कम हुई है। वस्तुत: इनमें भव्यता का आडंबर
है ही नहीं। व्यापारिक व्यवस्थाओं की जानकारी मिलती है, मगर सब कुछ आवश्यकताओं से ही
जुड़ा हुआ है, भव्यता का प्रदर्शन कहीं नहीं मिलता। संभवत: वहाँ की लिपि पढ़ ली जाने
के बाद इस विषय में अधिक जानकारी मिले।
प्रश्न 2. ‘सिंधु-सभ्यता
की खूबी उसका सौंदर्य-बोध है जो राज-पोषित या धर्म-पोषित न होकर समाज-पोषित था।’ ऐसा
क्यों कहा गया?
उत्तर- सिंधु घाटी के
लोगों में कला या सुरुचि का महत्त्व ज्यादा था। वास्तुकला या नगर-नियोजन ही नहीं, धातु
और पत्थर की। मूर्तियाँ, मृद्-भांडे, उन पर चित्रित मनुष्य, वनस्पति और पशु-पक्षियों
की छवियाँ, सुनिर्मित मुहरें, उन पर बारीकी से उत्कीर्ण आकृतियाँ, खिलौने, केश-विन्यास,
आभूषण और सबसे ऊपर सुघड़ अक्षरों का लिपिरूप सिंधु सभ्यता को तकनीक-सिद्ध से ज्यादा
कला-सिद्ध जाहिर करता है। खुदाई के दौरान जो भी वस्तुएँ मिलीं या फिर जो भी निर्माण
शैली के तत्व मिले, उन सभी से यही बात निकलकर आती है कि सिंधु सभ्यता समाज प्रधान थी।
यह व्यक्तिगत न होकर सामूहिक थी। इसमें न तो किसी राजा का प्रभाव था और न ही किसी धर्म
विशेष का। इतना अवश्य है कि कोई-न-कोई राजा होता होगा लेकिन राजा पर आश्रित यह सभ्यता
नहीं थी। इन सभी बातों के आधार पर यह बात कही जा सकती है कि सिंधु सभ्यता का सौंदर्य
समाज पोषित था।
प्रश्न 3. पुरातत्व
के किन चिह्नों के आधार पर आप यह कह सकते हैं कि-“सिंधु सभ्यता ताकत से शासित होने
की अपेक्षा समझ से अनुशासित सभ्यता थी।”
उत्तर- सिंधु-सभ्यता
से जो अवशेष प्राप्त हुए हैं उनमें औजार तो हैं, पर हथियार नहीं हैं। मुअनजो-दड़ो,
हड़प्पा से लेकर हरियाणा तक समूची सिंधु-सभ्यता में हथियार उस तरह नहीं मिले हैं जैसे
किसी राजतंत्र में होते हैं। दूसरी जगहों पर राजतंत्र या धर्मतंत्र की ताकत का प्रदर्शन
करने वाले महल, उपासना-स्थल, मूर्तियाँ और पिरामिड आदि मिलते हैं। हड़प्पा संस्कृति
में न भव्य राजप्रासाद मिले हैं, न मंदिर, न राजाओं व महतों की समाधियाँ। मुअनजो-दड़ो
से मिला नरेश के सिर का मुकुट भी बहुत छोटा है। इन सबके बावजूद यहाँ ऐसा अनुशासन जरूर
था जो नगर-योजना, वास्तु-शिल्प, मुहर-ठप्पों, पानी या साफ़-सफ़ाई जैसी सामाजिक व्यवस्थाओं
में एकरूपता रखे हुए था। इन आधारों पर विद्वान यह मानते हैं कि यह सभ्यता समझ से अनुशासित
सभ्यता थी, न कि ताकत से।
प्रश्न 4. ‘यह सच है
कि यहाँ किसी आँगन की टूटी-फूटी सीढ़ियाँ अब आप को कहीं नहीं ले जातीं; वे आकाश की
तरफ़ अधूरी रह जाती हैं, लेकिन उन अधूरे पायदानों पर खड़े होकर अनुभव किया जा सकता
है कि आप दुनिया की छत पर हैं, वहाँ से आप इतिहास को नहीं उस के पार झाँक रहे हैं।’
इस कथन के पीछे लेखक का क्या आशय है?
उत्तर- इस कथन के पीछे
लेखक का आशय यही है कि खंडहर होने के बाद भी पायदान बीते इतिहास का पूरा परिचय देते
हैं। इतनी ऊँची छत पर स्वयं चढ़कर इतिहास का अनुभव करना एक बढ़िया रोमांच है। सिंधु
घाटी की सभ्यता केवल इतिहास नहीं है बल्कि इतिहास के पार की वस्तु है। इतिहास के पार
की वस्तु को इन अधूरे पायदानों पर खड़े होकर ही देखा जा सकता है। ये अधूरे पायदान यही
दर्शाते हैं. कि विश्व की दो सबसे प्राचीन सभ्यताओं का इतिहास कैसा रहा।
प्रश्न 5. टूटे-फूटे
खंडहर, सभ्यता और संस्कृति के इतिहास के साथ-साथ धड़कती जिंदगियों के अनछुए समयों को
भी दस्तावेज़ होते हैं-इस कथन का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- यह सच है कि
टूटे-फूटे खंडहर, सभ्यता और संस्कृति के इतिहास के साथ-साथ धड़कती जिंदगियों के अनछुए
समयों का भी दस्तावेज होते हैं। मुअनजो-दड़ो में प्राप्त खंडहर यह अहसास कराते हैं
कि आज से पाँच हजार साल पहले कभी यहाँ बस्ती थी। ये खंडहर उस समय की संस्कृति का परिचय
कराते हैं। लेखक कहता है कि इस आदिम शहर के किसी भी मकान की दीवार पर पीठ टिकाकर सुस्ता
सकते हैं चाहे वह एक खंडहर ही क्यों न हो, किसी घर की देहरी पर पाँव रखकर आप सहसा सहम
सकते हैं, रसोई की खिड़की पर खड़े होकर उसकी गंध महसूस कर सकते हैं या शहर के किसी
सुनसान मार्ग पर कान देकर बैलगाड़ी की रुन-झुन सुन सकते हैं। इस तरह जीवन के प्रति
सजग दृष्टि होने पर पुरातात्विक खंडहर भी जीवन की धड़कन सुना देते हैं। ये एक प्रकार
के दस्तावेज होते हैं जो इतिहास के साथ-साथ उस अनछुए समय को भी हमारे सामने उपस्थित
कर देते हैं।
प्रश्न 6. इस पाठ में
एक ऐसे स्थान का वर्णन है, जिसे बहुत कम लोगों ने देखा होगा, परंतु इससे आपके मन में
उस नगर की एक तसवीर बनती है। किसी ऐसे ऐतिहासिक स्थल, जिसको आपने नज़दीक से देखा हो,
का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर- मैंने हर्षवर्धन
के किले को नजदीक से देखा है। यह एक ऐतिहासिक स्थल है। यह बहुत बड़ा किला है। जिसे
हर्षवर्धन ने अपनी राजधानी बना रखा था। अपने भाई राज्यवर्धन की मृत्यु के बाद वह थानेसर
का राजा बना। इस किले के चारों ओर प्रत्येक कोने पर ऊँचे-ऊँचे स्तंभ हैं। इसके परकोटों
पर खूबसूरत मीनाकारी की गई है। अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के रहने के लिए महल के साथ
ही कमरे बनवाए हुए थे। किले का मुख्य गुंबद बहुत ऊँचा था। इसके साथ ही एक मीना बाज़ार
था जहाँ पर हर प्रकार का साजो-सामान बिकता था। यह किला आज भी शांतभाव से खड़ा अपना
इतिहास बताता प्रतीत । होता है। किले का प्रवेश द्वार बहुत मजबूत है जहाँ तक कई सीढ़िया
पार करके पहुँचा जा सकता है।
प्रश्न 7. नदी, कुएँ,
स्नानागार और बेजोड़ निकासी व्यवस्था को देखते हुए लेखक पाठकों से प्रश्न पूछता है
कि क्या हम सिंधु घाटी सभ्यता को जल-संस्कृति कह सकते हैं? आपका जवाब लेखक के पक्ष
में है या विपक्ष में? तर्क दें।
उत्तर- सिंधु घाटी सभ्यता
में नदी, कुएँ, स्नानागार व बेजोड़ निकासी व्यवस्था के अनुसार लेखक इसे ‘जल-संस्कृति’
की संज्ञा देता है। मैं लेखक की बात से पूर्णत: सहमत हूँ। सिंधु-सभ्यता को जल-संस्कृति
कहने के समर्थन में निम्नलिखित कारण हैं –
i.
यह सभ्यता नदी के किनारे बसी है। मुअनजो-दड़ो के निकट
सिंधु नदी बहती है।
ii.
यहाँ पीने के पानी के लिए लगभग सात सौ कुएँ मिले हैं।
ये कुएँ पानी की बहुतायत सिद्ध करते हैं।
iii.
मुअनजो-दड़ो में स्नानागार हैं। एक पंक्ति में आठ स्नानागार
हैं जिनमें किसी के भी द्वार एक-दूसरे के सामने
नहीं खुलते। कुंड में पानी के रिसाव को रोकने के लिए चूने और चिराड़ी के गारे का इस्तेमाल
हुआ है।
iv.
जल-निकासी के लिए नालियाँ व नाले बने हुए हैं जो पकी
ईटों से बने हैं। ये ईटों से ढँके हुए हैं। आज भी शहरों में जल-निकासी के लिए ऐसी व्यवस्था
की जाती है।
v.
मकानों में अलग-अलग स्नानागार बने हुए हैं।
vi.
मुहरों पर उत्कीर्ण पशु शेर, हाथी या गैडा जल-प्रदेशों
में ही पाए जाते हैं।
प्रश्न 8. सिंधु घाटी
सभ्यता का कोई लिखिए साक्ष्य नहीं मिला है। सिर्फ़ अवशेषों के आधार पर ही धारणा बनाई
है। इस लेख में मुअन-जोदड़ो के बारे में जो धारणा व्यक्त की गई है। क्या आपके मन में
इससे कोई भिन्न धारणा या भाव भी पैदा होता है? इन संभावनाओं पर कक्षा में समूह-चर्चा
करें।
उत्तर- यदि मोहनजोदड़ो
अर्थात् सिंधु घाटी की सभ्यता के बारे में धारणा बिना साक्ष्यों के बनाई गई है तो यह
गलत नहीं है। क्योंकि जो कुछ हमें खुदाई से मिला है वह किसी साक्ष्य से कम नहीं। खुदाई
के दौरान मिले बर्तनों, सिक्कों, नगरों, सड़कों, गलियों को साक्ष्य ही कहा जा सकता।
साक्ष्य लिखित हों यह जरूरी नहीं है। जो कुछ हमें सामने दिखाई दे रहा है वह भी तो प्रमाण
है। फिर हम इस तथ्य को कैसे भुला दें कि ये दोनों नगर विश्व की प्राचीनतम संस्कृति
और सभ्यता के प्रमाण हैं। इन्हीं के कारण अन्य सभी संस्कृतियाँ विकसित हुईं। मुअन-जोदड़ो
के बारे में जो धारणा व्यक्त की गई है। वह हर दृष्टि से प्रामाणिक है। उसके बारे में
अन्य कोई धारणा मेरे मन में नहीं बनती।