अध्याय-11: बाज़ार दर्शन
बाजार दर्शन’ श्री जैनेंद्र कुमार द्वारा रचित एक महत्त्वपूर्ण
निबंध है जिसमें गहन वैचारिकता और साहित्य सुलभ लालित्य का मणिकांचन संयोग देखा जा
सकता है। यह निबंध उपभोक्तावाद एवं बाजारवाद की मूल अंतर वस्तु को समझाने में बेजोड़
है। जैनेंद्र जी ने इस निबंध के माध्यम से अपने परिचित एवं मित्रों से जुड़े अनुभवों
को चित्रित किया है कि बाजार की जादुई ताकत कैसे हमें अपना गुलाम बना लेती है। उन्होंने
यह भी बताया है कि अगर हम आवश्यकतानुसार बाजार का सदुपयोग करें तो उसका लाभ उठा सकते
हैं लेकिन अगर हम जरूरत से दूर बाजार की चमक-दमक में फंस गए तो वह असंतोष, तृष्णा और
ईर्ष्या से घायल कर हमें सदा के लिए बेकार बना सकता। है। इन्हीं भावों को लेखक ने अनेक
प्रकार से बताने का प्रयास किया है।
लेखक बताता है कि एक बार उसका एक मित्र अपनी प्रिय
पत्नी के साथ बाजार में एक मामूली-सी वस्तु खरीदने हेतु गए थे लेकिन जब – वे लौटकर
आए तो उनके हाथ में बहुत-से सामान के बंडल थे। इस समाज में असंयमी एवं संयमी दोनों
तरह के लोग होते हैं। कुछ ऐसे जो बेकार खर्च करते हैं लेकिन कुछ ऐसे भी संयमी होते
हैं, जो फ़िजूल सामान को फ़िजूल समझते हैं। ऐसे लोग अपव्यय न करते हुए केवल आवश्यकतानुरूप
खर्च करते हैं। ये लोग ही पैसे को जोड़कर गर्वीले बने रहते हैं। लेखक कहता है कि वह
मित्र आवश्यकता से । ज्यादा सामान ले आए और उनके पास रेल टिकट के लिए भी पैसे नहीं
बचे। लेखक उसे समझाता है कि वह सामान पर्चेजिंग पावर के ।
अनुपात में लेकर आया है। – बाजार जो पूर्ण रूप से
सजा-धजा होता है। वह ग्राहकों को अपने आकर्षण से आमंत्रित करता है कि आओ मुझे लूट ले।
ग्राहक सब कुछ भूल जाएँ और बाजार को देखें। बाजार का आमंत्रण मूक होता है जो प्रत्येक
के हृदय में इच्छा जगाता है और यह मनुष्य को असंतोष, तृष्णा और ईर्ष्या से घायल कर
मनुष्य को सदा के लिए बेकार बना देता है। लेखक एक और अन्य मित्र के माध्यम से बताते
हैं कि ये मित्र बाजार में दोपहर से पहले गए लेकिन संध्या के समय खाली हाथ वापिस आए।
उन्होंने खाली हाथ आने का यह कारण बताया कि वह सब
कुछ खरीदना चाहता था इसीलिए इसी चाह में वह कुछ भी खरीदकर नहीं लाया। बाज़ार में जाने
पर इच्छा घेर लेती है जिससे मन में दुख प्रकट होता है। या बाजार के रूप सौंदर्य का
ऐसा जादू जो आँखों के रास्ते हृदय में प्रवेश करता है और चुंबक के समान मनुष्य को अपनी
तरफ आकर्षित करता है। जेब भरी हो तो बाजार में जाने पर मनुष्य निर्णय नहीं कर पाता
कि वह क्या-क्या सामान खरीदे क्योंकि उसे सभी सामान आरामसुख देनेवाले प्रतीत होते हैं
लेकिन जादू का असर उतरते ही मनुष्य को फैंसी चीज़ों का आकर्षण कष्टदायक प्रतीत होने
लगता है तब वह : दुखी हो उठता है।
मनुष्य को बाजार में मन को भरकर जाना चाहिए क्योंकि
जैसे गरमी की लू में यदि पानी पीकर जाएँ तो लू की तपन व्यर्थ हो जाती है। । वैसे ही
मन लक्ष्य से भरा हो तो बाजार का आकर्षण भी व्यर्थ हो जाएगा। आँख फोड़कर मनुष्य लोभ
से नहीं बच सकता क्योंकि ऐसा: करके वह अपना ही अहित करता है। संसार का कोई भी मनुष्य
पूर्ण नहीं है क्योंकि मनुष्य में यदि पूर्णता होती तो वह परमात्मा से अभिन्न महाशून्य
बन जाता। अत: अपूर्ण होकर ही हम मनुष्य हैं।
सत्य ज्ञान सदा इसी अपूर्णता के बोध को हममें गहरा
करता है तथा सत्य कर्म | सदा इस अपूर्णता की स्वीकृत के साथ होता है। लेखक एक चूर्ण बेचनेवाले अपने भगत पड़ोसी के माध्यम
से कहते हैं कि उन्हें चूर्ण बेचने का कार्य करते बहुत समय हो गया है। लोग : उन्हें
चूर्ण के नाम से बुलाते हैं। यदि वे व्यवसाय अपनाकर चूर्ण बेचते तो अब तक मालामाल हो
जाते लेकिन वे अपने चूर्ण को अपने-आप ।
पेटी में रखकर बेचते हैं और केवल छह आने की कमाई
होने पर बाकी चूर्ण बच्चों को मुफ्त बाँट देते हैं। लेखक बताते हैं कि इस सेठ भगत पर
बाजार का जादू थोड़ा-सा भी नहीं चलता। वह जादू से दूर पैसे से निर्मोही बन मस्ती में
अपना कार्य करता रहता है। । एक बार लेखक सड़क के किनारे पैदल चला जा रहा था कि एक मोटर
उनके पास से धूल उड़ाती गुजर गई। उनको ऐसा लगा कि : – यह मुझपर पैसे की व्यंग्यशक्ति
चलाकर गई हो कि उसके पास मोटर नहीं है। लेखक के मन में भी आता है कि उसने भी मोटरवाले।
– माँ-बाप के यहाँ जन्म क्यों नहीं लिया। लेकिन यह पैसे की व्यंग्यशक्ति उस चूर्ण बेचनेवाले
व्यक्ति पर नहीं चल सकती। – जी लेखक को बाजार चौक में मिले। बाजार पूरा सजा हुआ था
लेकिन उसका आकर्षण भगत जी के मन को नहीं भेद सका।
वे बड़े स्टोर चौक बाजार से गुजरते हुए एक छोटे-से
पंसारी की दुकान से अपनी ज़रूरत का सामान लेकर चल पड़ते हैं। उनके लिए चाँदनी चौक का
– आमंत्रण व्यर्थ दिखाई पड़ता है क्योंकि अपना सामान खरीदने के बाद सारा बाजार उनके
लिए व्यर्थ हो जाता है। लेखक अंत में स्पष्ट करता है कि बाजार को सार्थकता वही मनुष्य
देता है जो अपनी चाहत को जानता है। लेकिन जो अपनी इच्छाओं को नहीं जानते वे तो अपनी
पर्चेजिंग पावर के गर्व में अपने धन से केवल एक विनाशक और व्यंग्य शक्ति ही बाजार को
देते हैं। ऐसे मनुष्य । न तो बाज़ार से कुछ लाभ उठा सकते हैं और न बाजार को सत्य लाभ
दे सकते हैं। ऐसे लोग सद्भाव के हास में केवल कोरे ग्राहक का । व्यवहार करते हैं। सद्भाव
से हीन बाजार मानवता के लिए विडंबना है और ऐसे बाज़ार का अर्थशास्त्र अनीति का शास्त्र
है।
NCERT SOLUTIONS FOR CLASS 12 HINDI CHAPTER 11 AAROH
अभ्यास प्रश्न (पृष्ठ संख्या 92-96)
पाठ के साथ
प्रश्न 1. बाजार का जादू चढ़ने और उतरने पर मनुष्य
पर क्या-क्या असर पड़ता है?
उत्तर- बाजार का जादू चढ़ने और उतरने पर मनुष्य
पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं –
i.
बाजार में आकर्षक वस्तुएँ
देखकर मनुष्य उनके जादू में बँध जाता है।
ii.
उसे उन वस्तुओं की
कमी खलने लगती है।
iii.
वह उन वस्तुओं को जरूरत
न होने पर भी खरीदने के लिए विवश होता है।
iv.
वस्तुएँ खरीदने पर
उसका अह संतुष्ट हो जाता है।
v.
खरीदने के बाद उसे
पता चलता है कि जो चीजें आराम के लिए खरीदी थीं वे खलल डालती हैं।
vi.
उसे खरीदी हुई वस्तुएँ
अनावश्यक लगती हैं।
प्रश्न 2. बाजार में भगत जी के व्यक्तित्व का कौन-सा
सशक्त पहलू उभरकर आता है? क्या आपकी नज़र में उनको आचरण समाज में शांति स्थापित करने
में मददगार हो सकता है?
उत्तर- भगत जी समर्पण भी भावना से ओतप्रोत हैं।
धन संचय में उनकी बिलकुल रुचि नहीं है। वे संतोषी स्वभाव के आदमी हैं। ऐसे व्यक्ति
ही समाज में प्रेम और सौहार्द का संदेश फैलाते हैं। इसलिए ऐसे व्यक्ति समाज में शांति
स्थापित करने में मददगार साबित होते हैं।
प्रश्न 3. ‘बाज़ारूपन’ से क्या तात्पर्य है? किस
प्रकार के व्यक्ति बाजार को सार्थकता प्रदान करते हैं अथवा बाज़ार की सार्थकता किसमें
हैं?
उत्तर- ‘बाजारूपन’ से तात्पर्य है-दिखावे के लिए
बाजार का उपयोग। बाजार छल व कपट से निरर्थक वस्तुओं की खरीदफ़रोख्त, दिखावे व ताकत
के आधार पर होने लगती है तो बाजार का बाजारूपन बढ़ जाता है। क्रय-शक्ति से संपन्न की
पुलेि व्यिक्त बाल्पिनक बताते हैं। इसप्रतिसे बारक सवा लधनाह मिलता। शणक प्रति बढ़
जाती है। वे व्यक्ति जो अपनी आवश्यकता के बारे में निश्चित होते हैं, बाजार को सार्थकता
प्रदान करते हैं। बाजार का कार्य मनुष्य कल कपू करता है जहातक सामान मल्नेप बार सार्थकह
जाता है। यह पॉड” पावरक प्रर्शना नहीं होता।
प्रश्न 4. बाज़ार किसी का लिंग, जाति, धर्म या क्षेत्र
नहीं देखता, वह देखता है सिर्फ उसकी क्रय शक्ति को। इसे रूप में वह एक प्रकार से सामाजिक
समता की भी रचना कर रहा है। आप इससे कहाँ तक सहमत हैं?
उत्तर- यह बात बिलकुल सत्य है कि बाजारवाद ने कभी
किसी को लिंग, जाति, धर्म या क्षेत्र के आधार पर नहीं देखा। उसने केवल व्यक्ति के खरीदने
की शक्ति को देखा है। जो व्यक्ति सामान खरीद सकता है वह बाजार में सर्वश्रेष्ठ है।
कहने का आशय यही है कि उपभोक्तावादी संस्कृति ने सामाजिक समता स्थापित की है। यही आज
का बाजारवाद है। प्रश्न 5. आप अपने समाज से कुछ ऐसे प्रसंग का उल्लेख करें
i.
जब पैसा शक्ति के परिचायक
के रूप में प्रतीत हुआ।
ii.
जब पैसे की शक्ति काम
नहीं आई।
उत्तर:
i.
एक बार एक कार वाले
ने एक बच्चे को जख्मी कर दिया। बात थाने पर पहुँची लेकिन थानेदार ने पूरा दोष बच्चे
के माता-पिता पर लगा दिया। वह रौब से कहने लगा कि तुम अपने बच्चे का ध्यान नहीं रखते।
वास्तव में पैसों की चमक में थानेदार ने सच को झूठ में बदल दिया था। तब पैसा शक्ति
का परिचायक नजर आया।
ii.
एक व्यक्ति ने अपने
नौकर का कत्ल कर दिया। उसको बेकसूर मार दिया। पुलिस उसे थाने में ले गई। उसने पैसे
ले-देकर मामले को सुलझाने का प्रयास किया लेकिन सब बेकार। अंत में उस पर मुकदमा चला।
आखिरकार उसे 14 वर्ष की उम्रकैद हो गई। इस प्रकार पैसे की शक्ति काम नहीं आई।
पाठ के आसपास
प्रश्न 1. ‘बाज़ार दर्शन’ पाठ में बाज़ार जाने या
न जाने के संदर्भ में मन की कई स्थितियों का जिक्र आया है। आप इन स्थितियों से जुड़े
अपने अनुभवों का वर्णन कीजिए।
i.
मन खाली हो
ii.
मन खाली न हो
iii.
मन बंद हो
iv.
मन में नकार हो
उत्तर-
i.
मनखालौ हो–जब मनुष्य
का मन खाली होता है तो बाजार में अनाप–शनाप खरीददारी की जाती है । बजर का जादू सिर
चढकर बोलता है । एक बार में मेले में घूमने गया । वहाँ चमक–दमक, आकर्षक वस्तुएँ मुझे
न्योता देती प्रतीत हो रहीं थीं । रंग–बिरंगी लाइटों से प्रभावित होकर मैं एक महँगी
ड्रेस खरीद लाया । लाने के खाद पता चला कि यह आधी कीमत में फुटपाथ पर मिलती है।
ii.
मन खाली न हो–मन खाली
न होने पर मनुष्य अपनी इच्छित चीज खरीदता है । उसका ध्यान अन्य वस्तुओं पर नहीं जाता
। में घर में जरूरी सामान की लिस्ट बनाकर बाजार जाता है और सिफ्रे उन्हें ही खरीदकर
लाता हूँ । मैं अन्य चीजों को देखता जरूर हूँ, पर खरीददारी वहीं करता हूँजिसकौ मुझे
जरूरत होती है।
iii.
मनबंदहो–मन ईद होने
पर इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं । वैसे तो इच्छाएँ कभी समाप्त नहीं होतीं, परंतु कभी–कभी
पन:स्थिति ऐसी होती है कि किसी वस्तु में मन नहीं लगता । एक दिन में उदास था और मुझे
बाजार में किसी वस्तु में कोई दिलचस्पी नहीं थी । अत: में विना कहीं रुके बाजार से
निकल आया ।
iv.
मन में नकार हो–मन
में नकारात्मक भाव होने से बाजार की हर वस्तु खराब दिखाई देने लगती है । इससे समाज
इसका विकास रुक जाता है । ऐसा असर किसी के उपदेश या सिदूधति का पालन करने से होता है
। एक दिन एक साम्यवादी ने इस तरह का पाठ पढाया कि बडी कंपनियों की वस्तुएँ मुझें शोषण
का रूप दिखाई देने लगी।
प्रश्न 2. ‘बाज़ार दर्शन’ पाठ में किस प्रकार के
ग्राहकों की बात हुई है? आप स्वयं को किस श्रेणी का ग्राहक मानते/मानती हैं?
उत्तर- इस पाठ में प्रमुख रूप से दो प्रकार के ग्राहकों
का चित्रण निबंधकार ने किया है। एक तो वे ग्राहक, जो ज़रूरत के अनुसार चीजें खरीदते
हैं। दूसरे वे ग्राहक जो केवल धन प्रदर्शन करने के लिए चीजें खरीदते हैं। ऐसे लोग बाज़ारवादी
संस्कृति को ज्यादा बढ़ाते हैं। मैं स्वयं को पहले प्रकार का ग्राहक मानता/मानती हैं
क्योंकि इसी में बाजार की सार्थकता है।
प्रश्न 3. आप बाज़ार की भिन्न-भिन्न प्रकार की संस्कृति
से अवश्य परिचित होंगे। मॉल की संस्कृति और सामान्य बाज़ार और हाट की संस्कृति में
आप क्या अंतर पाते हैं? पर्चेजिंग पावर आपको किस तरह के बाजार में नजर आती है?
उत्तर- मॉल को संस्कृति से बाजार को पर्चेजिग
पावर को बढावा मिलता है । यह संस्कृति उच्च तथा उच्च मध्य वर्ग से संबंधित है । यहाँ
एक ही छत के नीचे विभिन्न तरह के सामान मिलते हैं तथा चकाचौंध व लूट चरम सोया पर होती
है । यहाँ बाजारूपन भी फूं उफान पर होता है । सामान्य बाजार में मनुष्य की जरूरत का
सामान अधिक होता है । यहाँ शोषण कम होता है तथा आकर्षण भी कम होता है । यहाँ प्राहक
व दूकानदार में सदभाव होता है । यहाँ का प्राहक मध्य वर्ग का होता है।
हाट – संस्कृति में निम्न वर्ग व ग्रमीण परिवेश का गाहक होता है
। इसमें दिखाया नहीं होता तथा मोल-भाव भी नाम- हैं का होता है । ।पचेंजिग पावर’ मलि
संस्कृति में नज़र आती है क्योंकि यहाँ अनावश्यक सामान अधिक खरीदे जाते है।
प्रश्न 4. लेखक ने पाठ में संकेत किया है कि कभी-कभी
बाज़ार में आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती है। क्या आप इस विचार से सहमत हैं?
तर्क सहित उत्तर दीजिए। (CBSE-2008)
उत्तर- आवश्यकता पड़ने पर व्यक्ति अपेक्षित वस्तु
हर कीमत पर खरीदना चाहता है। वह कोई भी कीमत देकर उस वस्तु को प्राप्त कर लेना चाहता
है। इसलिए वह कई बार शोषण का शिकार हो जाता है। बेचने वाला तुरंत उस वस्तु की कीमत
मूल कीमत से ज्यादा बता देता है। इसीलिए लेखक ने ठीक कहा है कि आवश्यकता ही शोषण का
रूप धारण कर लेती है।
प्रश्न 5. स्त्री माया न जोड़े यहाँ मया शब्द किस
ओर संकेत कर रहा है? स्त्रियों द्वारा माया जोड़ना प्रकृति प्रदत्त नहीं, बल्कि परिस्थितिवश
है। वे कौन-सी परिस्थितियाँ होंगी जो स्त्री को माया जोड़ने के लिए विवश कर देती हैं?
उत्तर- यहाँ ‘माया‘ शब्द का अर्थ है–धन–मगाती, जरूरत
की वस्तुएँ । आमतौर पर स्तियों को माया जोड़ते देखा जाता है । इसका कारण उनकी परिस्थितियों
है जो निम्नलिखित हैं –
·
आत्मनिर्भरता की पूर्ति
।
·
घर की जरूरतों क्रो
पूरा करना ।
·
अनिश्चित भविष्य ।
·
अहंभाव की तुष्टि ।
·
बच्चों की शिक्षा ।
·
संतान–विवाह हेतु ।
आपसदारी
प्रश्न 1. ज़रूरत-भर जीरा वहाँ से लिया कि फिर सारा चौक उनके
लिए आसानी से नहीं के बराबर हो जाता है-भगत जी की इस संतुष्ट निस्पृहता की कबीर की
इस सूक्ति से तुलना कीजिए
चाह गई चिंता गई मनुआ बेपरवाह
जाके कुछ न चाहिए सोइ सहंसाह।
– कबीर
उत्तर- कबीर का यह दोहा भगत जी की संतुष्ट निस्मृहता
पर पूर्णतया लागूहोता है । कबीर का कहना था कि इच्छा समाप्त होने यर लता खत्म हो जाती
है । शहंशाह वहीं होता है जिसे कुछ नहीं चाहिए । भगत जी भी ऐसे ही व्यक्ति हैं । इनकी
जरूरतें भी सीमित हैं । वे बाजार के आकर्षण से दूर हैं । अपनी ज़रूरत पा होने पर वे
संतुष्ट को जाते हैं ।
प्रश्न 2. विजयदान देथा की कहानी ‘दुविधा’ (जिस
पर ‘पहेली’ फ़िल्म बनी है) के अंश को पढ़कर आप देखेंगे कि भगत जी की संतुष्ट जीवन-दृष्टि
की तरह ही गड़रिए की जीवन-दृष्टि है, इससे आपके भीतर क्या भाव जगते हैं?
गड़रिया बगैर कहे ही उसके दिल की बात समझ गया, पर
अँगूठी.
कबूल नहीं की। काली दाढी के बीच पीले दाँतों की
हँसी हँसते हुए
बोला-‘मैं कोई राजा नहीं हूँ जो न्याय की कीमत वसूल
करूं।
मैंने तो अटका काम निकाल दिया। और यह अँगूठी मेरे
किस काम
की ! न यह अंगुलियों में आती है, न तड़े में। मेरी
भेड़े भी मेरी तरह
गॅवार हैं। घास तो खाती है, पर सोना सँघती तक नहीं।
बेकार की
वस्तुएँ तुम अमीरों को ही शोभा देती हैं।
-विजयदान देथा
उत्तर- विजयदान देथा की ‘दुविधा’ कहानी का अंश पढ़कर
मुझमें भी संतोषी वृत्ति के भाव जगते हैं। गड़रिया चाहता तो वह अपने न्याय की कीमत
वसूल सकता था। सामाजिक दृष्टि से यही ठीक भी था क्योंकि अमीर व्यक्ति जो कुछ गड़रिये
को दे रहा था वह उसका हक था। लेकिन गड़रिये और भगत जी की संतोषी भावना को देखकर मेरे
मन में भी इसी प्रकार के भाव उत्पन्न हो जाते हैं। मन करता है कि जीवन में इस भावना
को अपनाए रखें तो किसी प्रकार की चिंता नहीं रहेगी। जब कोई इच्छा या अपेक्षा नहीं होगी
तो दुख नहीं होगा। तब हम भी कबीर की तरह शहंशाह होंगे।
प्रश्न 3. बाज़ार पर आधारित लेख ‘नकली सामान पर
नकेल ज़रूरी’ का अंश पढ़िए और नीचे दिए गए बिंदुओं पर कक्षा में चर्चा कीजिए।
i.
नकली सामान के खिलाफ़
जागरूकता के लिए आप क्या कर सकते हैं?
ii.
उपभोक्ताओं के हित
को मद्देनजर रखते हुए सामान बनाने वाली कंपनियों का क्या नैतिक दायित्व है।
iii.
ब्रांडेड वस्तु को
खरीदने के पीछे छिपी मानसिकता को उजागर कीजिए?
नकली सामान पर नकेल
ज़रूरी
अपना क्रेता वर्ग बढ़ाने की होड़ में एफएमसीजी यानी
तेजी से बिकने वाले उपभोक्ता उत्पाद बनाने वाली कंपनियाँ गाँव के बाजारों में नकली
सामान भी उतार रही हैं। कई उत्पाद ऐसे होते हैं जिन पर न तो निर्माण तिथि होती है और
न ही उस तारीख का जिक्र होता है जिससे पता चले कि अमुक सामान के इस्तेमाल की अवधि समाप्त
हो चुकी है। आउटडेटेड या पुराना पड़ चुका सामान भी गाँव-देहात के बाजारों में खप रहा
है। ऐसा उपभोक्ता मामलों के जानकारों का मानना है। नेशनल कंज्यूमर डिस्प्यूट्स रिड्रेसल
कमीशन के सदस्य की मानें तो जागरूकता अभियान में तेजी लाए बगैर इस गोरखधंधे पर लगाम
कसना नामुमकिन है।
उपभोक्ता मामलों की जानकार पुष्पा गिरि माँ जी का
कहना है, इसमें दो राय नहीं कि गाँव-देहात के बाजारों में नकली सामान बिक रहा है। महानगरीय
उपभोक्ताओं को अपने शिकंजे में कसकर बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ, खासकर ज्यादा उत्पाद बेचने
वाली कंपनियाँ, गाँव का रुख कर चुकी हैं। वे गाँववालों के अज्ञान और उनके बीच जागरूकता
के अभाव का पूरा फ़ायदा उठा रही हैं। उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए कानून जरूर
हैं लेकिन कितने लोग इनका सहारा लेते हैं यह बताने की ज़रूरत नहीं। गुणवत्ता के मामले
में जब शहरी उपभोक्ता ही उतने सचेत नहीं हो पाए हैं तो गाँव वालों से कितनी उम्मीद
की जा सकती है।
इस बारे में नेशनल कंज्यूमर डिस्प्यूट्स रिड्रेसल
कमीशन के सदस्य जस्टिस एस. एन, कपूर का कहना है, 'टीवी ने दूर-दराज के गाँवों तक में
बहुराष्ट्रीय कंपनियों को पहुँचा दिया है। बड़ी-बड़ी कंपनियाँ विज्ञापन पर तो बेतहाशा
पैसा खर्च करती। हैं लेकिन उपभोक्ताओं में जागरूकता को लेकर वे चवन्नी खर्च करने को
तैयार नहीं हैं। नकली सामान के खिलाफ़ जागरूकता पैदा करने में स्कूल और कॉलेज के विद्यार्थी
मिलकर ठोस काम कर सकते हैं। ऐसा कि कोई प्रशासक भी न कर पाए'।
बेशक, इस कड़वे सच को स्वीकार कर लेना चाहिए कि
गुणवत्ता के प्रति जागरूकता के लिहाज से शहरी समाज भी कोई ज्यादा सचेत नहीं है। यह
खुली हुई बात है कि किसी बड़े ब्रांड का लोकल संस्करण शहर या महानगर का मध्य या निम्नमध्य
वर्गीय उपभोक्ता भी खुशी-खुशी खरीदता है। यहाँ जागरूकता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता
क्योंकि वह ऐसा सोच-समझकर और अपनी जेब की हैसियत को जानकर ही कर रहा है। फिर गाँववाला
उपभोक्ता ऐसा क्योंकर न करे। पर फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि यदि समाज में कोई गलत
काम हो रहा है तो उसे रोकने के जतन न किए जाएँ। यानी नकली सामान के इस गोरखधंधे पर
विराम लगाने के लिए जो कदम या अभियान शुरू करने की ज़रूरत है वह तत्काल हो।
-हिंदुस्तान 6 अगस्त 2006, साभार
उत्तर-
i.
नकली सामान के खिलाफ
लोगों को जागरूक करना ज़रूरी है। सबसे पहले विज्ञापनों, पोस्टरों और होर्डिंग के माध्यम
से यह बताया जाए कि किस तरह असली वस्तु की पहचान की जाए। लोगों को बताया जाए कि होलोग्राम
और ISI मार्क वाली वस्तु ही खरीदें। उन्हें यह भी जानकारी दी जाए कि नकली वस्तुएँ खरीदने
से क्या हानियाँ हो सकती हैं ?
ii.
सामान बनाने वाली कंपनियों
का सबसे पहले यही नैतिक दायित्व है कि अच्छा और बढ़िया सामान बनाए। वे ऐसी वस्तुओं
का उत्पादन करें जो आम आदमी को फायदा पहुँचायें। केवल अपना फायदा सोचकर ही समान न बेचें।
वे मात्रा की अपेक्षा गुणवत्ता पर ध्यान रखें तभी ग्राहक खुश होगा। जो कंपनी जितनी
ज्यादा गुणवत्ता देगी ग्राहक उसी कंपनी का सामान ज्यादा खरीदेंगे।
iii.
भारतीय मध्य वर्ग पर
आज का बाजार टिका हुआ है। वह दिन बीत गए जब लोकल कंपनी का माल खरीदा जाता। था। अब तो
लोग ब्रांडेड कंपनी का ही सामान खरीदते हैं। चाहे वह कितना ही महँगा क्यों न हो। उन्हें
तो केवल यही विश्वास होता है कि ब्रांडेड सामान अच्छा और बढ़िया होगा। उसमें किसी भी
तरह से कोई खराबी न होगी लोग इन ब्रांडेड सामानों को खरीदने के लिए कोई भी कीमत चुकाते
हैं। ब्रांडेड सामान चूँकि बड़ी-बड़ी हस्तियाँ इस्तेमाल करती हैं। इसलिए अन्य लोग भी
ऐसा ही करते हैं।
प्रश्न 4. प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ के हामिद और
उसके दोस्तों का बाजार से क्या संबंध बनता है? विचार करें।
उत्तर- प्रेमचंद की कहानी में हामिद और उसके दोस्त
यानी सम्मी मोहसिन नूरे सभी मेला देखने जाते हैं। वे मेले में लगी दुकानों को देखकर
बहुत प्रभावित होते हैं। वे हाट बाजार में लगी हुई सारी वस्तुएँ देखकर प्रसन्न होते
हैं। उनका मन करता है कि सभी-वस्तुएँ खरीद ली जाएँ। किंतु किसी के पास पाँच पैसे थे
तो किसी के पास दो पैसे। हाट वास्तव में बाजार का ही एक रूप है। बच्चे इनमें लगी दुकानों
को देखकर आकर्षित हो जाते हैं। वे तरह-तरह की इच्छाएँ करने लगते हैं। बच्चों का संबंध
बाजार से प्रत्यक्ष होता है। वे सीधे तौर पर बाजार में जाकर वहाँ रखी वस्तुओं को खरीद
लेना चाहते हैं।
विज्ञापन की दुनिया
प्रश्न 1. आपने समाचार-पत्रों, टी.वी. आदि पर अनेक
प्रकार के विज्ञापन देखे होंगे जिनमें ग्राहकों को हर तरीके से लुभाने
का प्रयास किया जाता है। नीचे लिखे बिंदुओं के संदर्भ
में किसी एक विज्ञापन की समीक्षा कीजिए और यह भी लिखिए कि आपको विज्ञापन की किस बात
ने सामान खरीदने के लिए प्रेरित किया।
i.
विज्ञापन में सम्मिलित
चित्र और विषय-वस्तु
ii.
विज्ञापन में आए पात्र
और उनका औचित्य
iii.
विज्ञापन की भाषा।
उत्तर- मैंने शाहरूख खान द्वारा अभिनीत सैंट्रो
कार का विज्ञापन देखा। इस विज्ञापन में सैंट्रो कार का चित्र था और विषय वस्तु थी।
वह कार, जिसे बेचने के लिए आज के सुपर स्टार शाहरूख खान को अनुबंधित किया गया। इसमें
शाहरूख खान और उनकी पत्नी को विज्ञापन करते दिखाया गया है। साथ ही उनके एक पड़ोसी का
भी जिक्र आया है। इन सभी पात्रों का स्वाभाविक चित्रण हुआ है। शाहरूख की पत्नी जब पड़ोसी
पर आकर्षित होती है तो शाहरूख पूछता है क्यों? तब उसकी पत्नी जवाब देती है सैंट्रो
वाले हैं न ।’ मुझे कार खरीदने के लिए इसी कैप्शन ने प्रेरित किया। इस पंक्ति में व्यक्ति
की सामाजिक स्थिति का पता चलता है।
प्रश्न 2. अपने सामान की बिक्री को बढ़ाने के लिए
आज किन-किन तरीकों का प्रयोग किया जा रहा है? उदाहरण सहित उनका संक्षिप्त परिचय दीजिए।
आप स्वयं किस तकनीक या तौर-तरीके का प्रयोग करना चाहेंगे जिससे बिक्री भी
अच्छी हो और उपभोक्ता गुमराह भी न हो। उत्तर सेल
लगाकर, अपने सामान के साथ कुछ उपहार देकर, स्क्रैच कार्ड के द्वारा, विज्ञापन देकर
या सामान की खूबियाँ बताकर। उदाहरण
i.
सेल-सेल-सेल कपड़ों
पर भारी सेल।।
ii.
एक सूट के साथ कमीज
फ्री। बिलकुल फ्री।
iii.
ये कपड़े त्वचा को
नुकसान नहीं पहुँचाते, ये नरम और मुलायम कपड़े हैं। पूरी तरह से सूती । यदि मुझे सामान
बेचना पड़े तो मैं बेची जाने वाली वस्तु के गुणों का प्रचार करूंगा/करूंगी ताकि ग्राहक
अपनी समझ से
वस्तु खरीदे।।
भाषा की बात
प्रश्न 1. विभिन्न परिस्थितियों में भाषा का प्रयोग
भी अपना रूप बदलता रहता है कभी औपचारिक रूप में आती है तो कभी अनौपचारिक रूप में। पाठ
में से दोनों प्रकार के तीन-तीन उदाहरण छाँटकर लिखिए।
उत्तर- औपचारिक रूप
i.
मैंने कहा – यह क्या?
बोले – यह जो साथ थी।
ii.
बोले – बाज़ार देखते
रहे।
मैंने कहा – बाज़ार क्या देखते रहे।
iii.
यह दोपहर के पहले के
गए गए बाजार से कहीं शाम को वापिस आए।
अनौपचारिक
i.
कुछ लेने का मतलब था
शेष सबकुछ छोड़ देना।
ii.
बाजार आमंत्रित करता
है कि आओ मुझे लूटो और लूटो।
iii.
पैसे की व्यंग्य शक्ति
भी सुनिए।
प्रश्न 2. पाठ में अनेक वाक्य ऐसे हैं, जहाँ लेखक
अपनी बात कहता है कुछ वाक्य ऐसे हैं जहाँ वह पाठक-वर्ग को संबोधित करता है। सीधे तौर
पर पाठक को संबोधित करने वाले पाँच वाक्यों को छाँटिए और सोचिए कि ऐसे संबोधन पाठक
से रचना पढ़वा लेने में मददगार होते हैं?
उत्तर-
i.
बाज़ार में एक जादू
है। वह जादू आँख की राह काम करता है।
ii.
जेब खाली पर मन भरा
न हो, तो भी जादू चल जाएगा।
iii.
यहाँ एक अंतर चिह्न
लेना ज़रूरी है।
iv.
कहीं आप भूल नहीं कर
बैठिएगा।
v.
पैसे की व्यंग्य शक्ति
सुनिए। वह दारूण है। अवश्य ऐसे संबोधनों के कारण पाठकों के मन में जिज्ञासा उत्पन्न
होती है। वह अपनी जिज्ञासा को शांत करना चाहता है। इसीलिए ऐसे संबोधन पाठक से रचना
पढ़वा लेने में सहायक सिद्ध होते हैं।
प्रश्न 3. नीचे दिए गए वाक्यों को पढ़िए।
i.
पैसा पावर है।
ii.
पैसे की उस पर्चेजिंग
पावर के प्रयोग में ही पावर का रस है।
iii.
मित्र ने सामने मनीबैग
फैला दिया।
iv.
पेशगी ऑर्डर कोई नहीं
लेते।
ऊपर दिए गए इन वाक्यों की संरचना तो हिंदी भाषा
की है लेकिन वाक्यों में एकाध शब्द अंग्रेजी भाषा के आए हैं। इस तरह के प्रयोग को कोड
मिक्सिंग कहते हैं। एक भाषा के शब्दों के साथ दूसरी भाषा के शब्दों का मेलजोल ! अब
तक। आपने जो पाठ पढ़े उसमें से ऐसे कोई पाँच उदाहरण चुनकर लिखिए। यह भी बताइए कि आगत
शब्दों की जगह उनके हिंदी पर्यायों का ही प्रयोग किया जाए तो संप्रेषणीयता पर क्या
प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर-
i.
पैसे की गरमी या एनर्जी।
ii.
वह तत्व है मनी बैग
iii.
अपनी पर्चेजिंग पावर
के अनुपात में आया है।
iv.
तो एकदम बहुत से बंडल
थे।
v.
वह पैसे की पावर को
इतना निश्चय समझते हैं कि उसके प्रयोग की परीक्षा का उन्हें दरकार नहीं है।
यदि इस वाक्य में एनर्जी की जगह उत्साह शब्द का
प्रयोग किया जाता है तो वाक्य की प्रेषणीयता अधिक प्रभावी होती है। इसी प्रकार ‘मनी
बैग’ की जगह नोटों से भरा थैला, पर्चेजिंग पावर की जगह खरीदने की शक्ति, बंडल की जगह
गट्ठर और पावर की जगह ऊर्जा या उत्साह प्रभावी होगा क्योंकि हिंदी, पर्यायों के प्रयोग
से संप्रेषणीयता ज्यादा बढ़ जाती है।
प्रश्न 4. नीचे दिए गए वाक्यों के रेखांकित अंश
पर ध्यान देते हुए उन्हें पढ़िए।
i.
निर्बल ही धन
की ओर झुकता है।
ii.
लोग संयमी भी
होते हैं।
iii.
सभी कुछ तो
लेने को जी होता था।
ऊपर दिए गए वाक्यों के रेखांकित अंश ‘ही’, ‘भी’,
‘तो’ निपात हैं जो अर्थ पर बल देने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। वाक्य में इनके होने-न-होने
और स्थान क्रम बदल देने से वाक्य के अर्थ पर प्रभाव पड़ता है, जैसे
मुझे भी किताब चाहिए (मुझे महत्त्वपूर्ण
है।)
मुझे किताब भी चाहिए। (किताब महत्त्वपूर्ण
है।)
आप निपात (ही, भी, तो) का प्रयोग करते हुए
तीन-तीन वाक्य बनाइए। साथ ही ऐसे दो वाक्यों का निर्माण कीजिए जिसमें
ये तीनों निपात एक साथ आते हों।
उत्तर-
ही –
i.
उसे ही यह टिकट दे
दो।
ii.
मैं वैसे ही उससे मिला।
iii.
तुमने ही मुझे उसके
बारे में बताया।
भी –
i.
कुछ लोग दुष्ट भी होते
हैं।
ii.
वह भी उनसे मिल गया।
iii.
उसने भी मेरा साथ छोड़
दिया।
तो –
i.
रामलाल ने कुछ तो कहा
होता।
ii.
तुम लोग कुछ तो शर्म
किया करो।
iii.
तुम लोगों को तो फाँसी
दे देनी चाहिए।
दो वाक्य
i.
मैंने ही नारायण शंकर
को वहाँ भेजा था लेकिर उसने भी वह किया, कृपा शंकर तो उसे पहले ही कर दिया था।
ii.
आर्यन तो दिल्ली जाना
चाहता था लेकिन मैं तो उसे भेजना नहीं चाहता था। तभी तो वह नाराज हो गया।
चर्चा करें
प्रश्न 1. पर्चेजिंग पावर से क्या अभिप्राय है?
बाजार की चकाचौंध से दूर पर्चेजिंग पावर का सकारात्मक
उपयोग किस प्रकार किया जा सकता है? आपकी मदद के लिए संकेत दिया जा रहा है
i.
सामाजिक विकास के कार्यों
में
ii.
ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था
को सुदृढ़ करने में ……।
उत्तर- पर्चेजिंग पावर से अभिप्राय है कि खरीदने
की क्षमता। कहने का भाव है कि खरीददारी करने का सामर्थ्य लेकिन पर्चेजिंग पावर का सकारात्मक
प्रयोग किया जा सकता है। वह भी बाजार की चकाचौंध से कोसों दूर। इसका सकारात्मक प्रयोग
सामाजिक कार्य करके और ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था को सुदृढ़ करके। सामाजिक विकास के कार्य
जैसे स्कूल, अस्पताल, धर्मशालाएँ। खुलवाकर उस पैसे का उपयोग किया जा सकता है जो कि
लोग फिजूल के सामान पर खर्च करते हैं। आज शॉपिंग माल्स में लगभग 30 प्रतिशत फिजूल पैसा
लोग खर्चते हैं क्योंकि वे अपनी शानो शौकत रखने के लिए खरीददारी करते हैं। यदि इसी
पैसे को सामाजिक विकास के कार्यों में लगा दिया जाए तो समाज न केवल उन्नति करेगा बल्कि
वह अमीरी गरीबी के अंतर से भी बाहर निकलेगा। दूसरे इस पैसे का ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था
को सुदृढ़ करने के लिए उपयोग किया जा सकता है। गाँवों को मूलभूत सुविधाएँ इसी पैसे
से प्रदान की जा सकती हैं। यह पैसा गाँवों की तस्वीर बदल सकता है।