Shram Vibhajan Aur Jati Pratha Question Answer

अध्याय-15: श्रम-विभाजन

प्रस्तुत पाठ भीमराव आंबेडकर के सुप्रसिद्घ भाषण एनीहिलेशन ऑफ कास्ट का हिंदी रूपांतर है जो लेखक ने जाति-पाति तोड़क मंडल (लाहौर) के सन 1936 ई० के वार्षिक सम्मेलन अध्यक्षीय भाषण के रूप में लिखा था, लेकिन इसकी क्रांतिकारी दृष्टि के कारण उस सम्मेलन को ही स्थगित कर दिया गया था। इस पाठ में लेखक ने जाति-प्रथा को श्रम विभाजन का एक तरीका मानने की अवधारणा को निरस्त करते हुए केवल भावात्मक नहीं, बल्कि आर्थिक उत्थान, सामाजिक व राजनैतिक संघटन और जीवनयापन के समस्त भौतिक पहलओं के ठोस परिप्रेक्ष्य में जातिवाद के समूल उच्छेदन की अनिवार्यता ठहराई है।

साथ ही लेखक ने एक आदर्श समाज की कल्पना भी की है। यह विडंबना है कि हमारे समाज में आज भी जातिवाद के पोषकों की कोई कमी नहीं है। आधुनिक सभ्य समाज कार्यकशलता के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है। जाति-प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दुसरा रूप है। लेखक ने श्रम-विभाजन को सभ्य समाज – के लिए आवश्यक माना है, लेकिन यह भी बताया है कि किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन नहीं करता। उन्होंने भारत की जाति-प्रथा के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि यहाँ जाति-प्रथा श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती, बल्कि उन्हें एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच में भी बाँट देती है।

जाति-प्रथा पेशे का पूर्व निर्धारण कर देती है। इसके साथ मनुष्य को उसमें आजीवन बाँधे रखती है। आधुनिक युग में विकास के कारण भी व्यक्ति अपना पेशा नहीं बदल सकता। हिंदू धर्म में तो जाति-प्रथा किसी को भी उसके पैतृक पेशे के अलावा अन्य पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती, चाहे मनुष्य किसी कार्य में कितना ही दक्ष क्यों न हो। इसका सबसे बड़ा परिणाम यह है कि भारत में निरंतर बेरोजगारी बढ रही है। गरीबी और शोषण के साथ अरुचिपूर्ण कार्य करने की विवशता निरंतर गंभीर समस्या है।

समाज में जाति-प्रथा आर्थिक असहायता को भी पैदा करती है। यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा, रुचि और आत्मशक्ति को दबा कर उन्हें अस्वाभाविक नियमों में जकड़ लेती है तथा मनुष्य को निष्क्रिय बना डालती है। लेखक ने एक आदर्श समाज की कल्पना की है, जहाँ की व्यवस्था स्वतंत्रता, समता और भाईचारे पर आधारित होगी। उस समाज में इतनी गतिशीलता होगी, जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक संचारित होगा। समाज के सभी हितों में

सब का हिस्सा होगा। साथ ही लोगों को अपने हितों के प्रति सजग रहना पड़ेगा। सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क बना रहेगा। लेखक ने । इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र बताया है। लेखक ने समाज में समता पर बल दिया है। हालाँकि राजनेता का समाज के प्रत्येक व्यक्ति की। आवश्यकताओं और क्षमताओं के आधार पर वांछित अलग-अलग व्यवहार संभव नहीं हो सकता, लेकिन मानवता के दृष्टिकोण से समाज को दो वर्गों में नहीं बाँटा जा सकता। समता काल्पनिक जगत की वस्तु के साथ व्यावहारिक और आवश्यक भी है। समता ही किसी राजनेता के व्यवहार की एकमात्र कसौटी है।


 

NCERT SOLUTIONS FOR CLASS 12 HINDI CHAPTER 15 AAROH

अभ्यास प्रश्न (पृष्ठ संख्या 157)

पाठ के साथ

प्रश्न 1. जाति प्रथा को श्रम-विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे आंबेडकर के क्या तर्क हैं?

उत्तर- जाति-प्रथा को श्रम-विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे आंबेडकर के निम्नलिखित तर्क हैं –

     i.        जाति-प्रथा, श्रम-विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन भी करती है।

   ii.        सभ्य समाज में श्रम-विभाजन आवश्यक है, परंतु श्रमिकों के विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन किसी अन्य देश में नहीं है।

 iii.        भारत की जाति-प्रथा में श्रम-विभाजन मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं होता। वह मनुष्य की क्षमता या प्रशिक्षण को दरकिनार करके जन्म पर आधारित पेशा निर्धारित करती है।

 iv.        जु:शुल्यक विपितपिस्थितयों मेंपेश बालक अनुपितनाह देता फल भूखे मरने की नौबत आ जाती है।

प्रश्न 2. जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का भी एक कारण कैसे बनती रही है? क्या यह स्थिति आज भी है?

उत्तर- जातिप्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का भी एक कारण बनती रही है क्योंकि यहाँ जाति प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती बल्कि मनुष्य को जीवन भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है। उसे पेशा बदलने की अनुमति नहीं होती। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्रायः आती है क्योंकि उद्योग धंधों की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है।

ऐसी परिस्थितियों में मनुष्य को पेशा न बदलने की स्वतंत्रता न हो तो भुखमरी व बेरोजगारी बढ़ती है। हिंदू धर्म की जातिप्रथा किसी भी व्यक्ति को पैतृक पेशा बदलने की अनुमति नहीं देती। आज यह स्थिति नहीं है। सरकारी कानून, समाज सुधार व शिक्षा के कारण जाति प्रथा के बंधन कमजोर हुए हैं। पेशे संबंधी बंधन समाप्त प्राय है। यदि व्यक्ति अपना पेशा बदलना चाहे तो जाति बाधक नहीं है।

प्रश्न 3. लेखक के मत से दासता’ की व्यापक परिभाषा क्या है?

उत्तर- लेखक के मत से ‘दासता’ से अभिप्राय केवल कानूनी पराधीनता नहीं है। दासता की व्यापक परिभाषा है-किसी व्यक्ति को अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता न देना। इसका सीधा अर्थ है-उसे दासता में जकड़कर रखना। इसमें कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों द्वारा निर्धारित व्यवहार व कर्तव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है।

प्रश्न 4. शारीरिक वंश-परंपरा और सामाजिक उत्तराधिकार की दृष्टि से मनुष्यों में असमानता संभावित रहने के बावजूद आंबेडकर समता’ को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह क्यों करते हैं? इसके पीछे उनके क्या तर्क हैं?

उत्तर- शारीरिक वंश परंपरा और सामाजिक उत्तराधिकार की दृष्टि से मनुष्यों में असमानता संभावित रहने के बावजूद आंबेडकर समता को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह इसलिए करते हैं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता का विकास करने के लिए समान अवसर मिलने चाहिए। वे शारीरिक वंश परंपरा व सामाजिक उत्तराधिकार के आधार पर असमान व्यवहार को अनुचित मानते हैं। उनका मानना है कि समाज को यदि अपने सदस्यों से अधिकतम उपयोगिता प्राप्त करनी है। तो उसे समाज के सदस्यों को आरंभ से ही समान अवसर व समान व्यवहार उपलब्ध करवाने चाहिए। राजनीतिज्ञों को भी सबके साथ समान व्यवहार करना चाहिए। समान व्यवहार और स्वतंत्रता को सिद्धांत ही समता का प्रतिरूप है। सामाजिक उत्थान के लिए समता का होना अनिवार्य हैं।

प्रश्न 5. सही में आंबेडकर ने भावनात्मक समत्व की मानवीय दृष्टि के तहत जातिवाद का उन्मूलन चाहा है, जिसकी प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों और जीवन-सुविधाओं का तर्क दिया है। क्या इससे आप सहमत हैं?

उत्तर- हम लेखक की बात से सहमत हैं। उन्होंने भावनात्मक समत्व की मानवीय दृष्टि के तहत जातिवाद का उन्मूलन चाहा है जिसकी प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों और जीवन-सुविधाओं का तर्क दिया है। भावनात्मक समत्व तभी आ सकता है जब समान भौतिक स्थितियाँ व जीवन-सुविधाएँ उपलब्ध होंगी। समाज में जाति-प्रथा का उन्मूलन समता का भाव होने से ही हो सकता है। मनुष्य की महानता उसके प्रयत्नों के परिणामस्वरूप होनी चाहिए। मनुष्य के प्रयासों का मूल्यांकन भी तभी हो सकता है जब सभी को समान अवसर मिले। शहर में कान्वेंट स्कूल व सरकारी स्कूल के विद्यार्थियों के बीच स्पर्धा में कान्वेंट स्कूल का विद्यार्थी ही जीतेगा क्योंकि उसे अच्छी सुविधाएँ मिली हैं। अत: जातिवाद का उन्मूलन करने के बाद हर व्यक्ति को समान भौतिक सुविधाएँ मिलें तो उनका विकास हो सकता है, अन्यथा नहीं।

प्रश्न 6. आदर्श समाज के तीन तत्वों में से एक भ्रातृता’ को रखकर लेखक ने अपने आदर्श समाज में स्त्रियों को भी सम्मिलित किया है अथवा नहीं? आप इस ‘भ्रातृता’ शब्द से कहाँ तक सहमत हैं? यदि नहीं तो आप क्या शब्द उचित समझेंगे/ समझेंगी?

उत्तर- लेखक ने अपने आदर्श समाज में भ्रातृता के अंतर्गत स्त्रियों को भी सम्मिलित किया है। भ्रातृता से अभिप्राय भाईचारे की भावना अथवा विश्व बंधुत्व की भावना से है। जब यह भावना किसी व्यक्ति विशेष या लिंग विशेष की है ही नहीं तो स्त्रियाँ स्वाभाविक रूप से इसमें सम्मिलित हो जाती हैं। आखिर स्त्री का स्त्री के प्रति प्रेम भी तो बंधुत्व की भावना को ही प्रकट करता है। इसलिए मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि यह शब्द पूर्णता का द्योतक है।

पाठ के आसपास

प्रश्न 1. आंबेडकर ने जाति प्रथा के भीतर पेशे के मामले में लचीलापन न होने की जो बात की है-उस संदर्भ में शेखर जोशी की कहानी ‘गलता लोहा’ पर पुनर्विचार कीजिए।

उत्तर- विद्यार्थी इस पाठ को पढ़ें।

प्रश्न 2. कार्य कुशलता पर जाति प्रथा का प्रभाव विषय पर समूह में चर्चा कीजिए। चर्चा के दौरान उभरने वाले बिंदुओं को लिपिबद्ध कीजिए।

उत्तर- विद्यार्थी स्वयं करें।

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