-भदंत आनंद कौसल्यायन
सारांश
लेखक कहते हैं की सभ्यता और संस्कृति दो ऐसे शब्द हैं जिनका उपयोग अधिक होता
है परन्तु समझ में कम आता है। इनके साथ विशेषण लगा देने से इन्हे समझना और भी कठिन
हो जाता है। कभी-कभी दोनों को एक समझ लिया जाता है तो कभी अलग। आखिर ये दोनों एक हैं
या अलग। लेखक समझाने का प्रयास करते हुए आग और सुई-धागे के आविष्कार उदाहरण देते हैं।
वह उनके आविष्कर्ता की बात कहकर व्यक्ति विशेष की योग्यता, प्रवृत्ति और प्रेरणा को
व्यक्ति विशेष की संस्कृति कहता है जिसके बल पर आविष्कार किया गया।
लेखक संस्कृति और सभ्यता में अंतर स्थापित करने के लिए आग और सुई-धागे के आविष्कार
से जुड़ी प्रारंभिक प्रयत्नशीलता और बाद में हुई उन्नति के उदहारण देते हैं। वे कहते
हैं लौहे के टुकड़े को घिसकर छेद बनाना और धागा पिरोकर दो अलग-अलग टुकड़ों को जोड़ने की
सोच ही संस्कृति है। इन खोजों को आधार बनाकर आगे जो इन क्षेत्रों में विकास हुआ वह
सभ्यता कहलाता है। अपनी बुद्धि के आधार पर नए निश्चित तथ्य को खोज आने वाली पीढ़ी को
सौंपने वाला संस्कृत होता है जबकि उसी तथ्य को आधार बनाकर आगे बढ़ने वाला सभ्यता का
विकास करने वाला होता है। भौतिक विज्ञान के सभी विद्यार्थी जानते हैं की न्यूटन ने
गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का आविष्कार किया इसलिए वह संस्कृत कहलाया परन्तु वह और
अनेक बातों को नही जान पाया। आज के विद्यार्थी उन बातों को भी जानते है लेकिन हम इन्हे
अधिक सभ्य भले ही कहे परन्तु संस्कृत नही कह सकते।
लेखक के अनुसार भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सुई-धागे और आग के आविष्कार
करते तथ्य संस्कृत संस्कृत होने या बनने के आधार नही बनते, बल्कि मनुष्य में सदा बसने
वाली सहज चेतना भी इसकी उत्पत्ति या बनने का कारण बनती है। इस सहज चेतना का प्रेरक
अंश हमें अपने मनीषियों से भी मिला है। मुँह के कौर को दूसरे के मुँह में डाल देना और रोगी बच्चे को रात-रात भर गोदी
में लेकर माता का बैठे रहना इसी इसी चेतना से प्रेरित होता है। ढाई हजार वर्ष पूर्व
बुद्ध का मनुष्य को तृष्णा से मुक्ति के लिए उपायों को खोजने में गृह त्यागकर कठोर
तपस्या करना, कार्ल मार्क्स का मजदूरों के सुखद जीवन के सपने पूरा करने के लिए दुखपूर्ण
जीवन बिताना और लेनिन का मुश्किलों से मिले डबल रोटी के टुकड़ों को दूसरों को खिला देना
इसी चेतना से संस्कृत बनने का उदाहरण हैं। लेखक कहते हैं की खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने
के तरीके आवागमन के साधन से लेकर परस्पर मर-कटने के तरीके भी संस्कृति का ही परिणाम
सभ्यताके उदाहरण हैं।
मानव हित में काम ना करने वाली संस्कृति का नाम असंस्कृति है। इसे संस्कृति नही कहा जा सकता। यह निश्चित ही असभ्यता को जन्म देती है। मानव हित में निरंतर परिवर्तनशीलता का ही नाम संस्कृति है। यह बुद्धि और विवेक से बना एक ऐसा तथ्य है जिसकी कभी दल बाँधकर रक्षा करने की जरुरत नही पड़ती। इसका कल्याणकारी अंश अकल्याणकारी अंश की तुलना में सदा श्रेष्ठ और स्थायी है।
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