लेखन-कला की परिभाषा
प्रत्येक व्यक्ति
दूसरों पर अपने मन के भावों को प्रकट करने के लिए वाक्य बोलता है। जो व्यक्ति बोलने
की कला भली-भाँति जानता है, उसके वाक्यों का दूसरों पर अधिक प्रभाव पड़ता है। बोलने
का उत्कृष्ट रूप भाषण या व्याख्यान होता है। इसके लिए अध्ययन और मनन तथा अभ्यास की
आवश्यकता होती है।
लिखना बोलने से
अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। बहुत सारे व्यक्ति अच्छा बोल तो लेते हैं लेकिन अच्छा लिख
नहीं पाते। कुछ में दोनों योग्यताएँ होती हैं। लिखने में विशेष कुशलता हासिल करने के
लिए अध्ययन, निरीक्षण, भ्रमण, मनन तथा अभ्यास की महती आवश्यकता होती है।
लेखन कला के मूलतः बारह गुण होते हैं
1. शुद्धता
सुन्दर लेख के
लिए पहली शर्त है - शुद्धता। हमें न सिर्फ वर्तनी की शुद्धता, बल्कि वाक्यों की शुद्धता
पर भी ध्यान देना चाहिए। यदि उच्चारण करते समय ही ह्रस्व-दीर्ध, संयुक्त-असंयुक्त,
शिरोरेखा, मात्रा आदि का ध्यान रखा जाय तो लिखने और बोलने में काफी सुगमता होती है।
हमें स्त्रीलिंग-पुंल्लिंग,
वचन, कारक-चिह्नों एवं विराम-चिह्नों को ध्यान में रखते हुए लिखना चाहिए। हमें कर्त्ता,
कर्म एवं क्रिया के क्रम पर विशेष ध्यान देना चाहिए, साथ ही हर संज्ञा के लिए उपयुक्त
विशेषण और क्रिया के लिए क्रियाविशेषण का प्रयोग करने से वाक्य प्रभावोत्पादक होता
है।
मुहावरों एवं
लोकोक्तियों का प्रयोग उचित स्थानों पर ही करना चाहिए, यत्र-तत्र नहीं। लम्बे वाक्यों
में कर्त्ता एवं क्रिया का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
2. सुलेख
प्रतिदिन के व्यवहार
और परीक्षा में विशेषत सुलेख का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। लेख को देखते ही पाठक
या परीक्षक के मन में लेखक या परीक्षार्थी के प्रति प्रतिकूल अथवा अनुकूल भाव उत्पन्न
हो जाता है। अतएव, आपका लेख सुन्दर, सुस्पष्ट और सुपाठ्य होना चाहिए। सुलेख अभ्यास
से बनता है। इसके लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए।
· कभी भी अतिशीघ्रता
न करें।
· हाथ को ढीला न
रखें, कलम अथवा पेंसिल को सही रूप से पकड़ें।
· सभी अक्षरों के
वास्तविक स्वरूप को ही लिखें।
जैसे - ‘उ’ और ‘ड’ में
‘रा’ और ‘ए’, ‘ख’ और ‘रव’ में, ‘क’ और ‘फ’ में ‘क्ष’ और ‘झ’ में, ‘द्य’ और ‘घ’ में,
‘घ’ और ‘ध’ में फर्क समझे।
· अपनी सुविधानुसार
अक्षरों में एकरूपता लायें। यानी यदि आपके अक्षर बायीं ओर झुकते हैं तो सभी अक्षर बायीं
ओर ही हों। कुछ बायीं, कुछ दायीं, कुछ सीधे लिखने से लिखावट भद्दी होती है।
· खुरदरे और स्याही
फैलनेवाले कागज पर मत लिखें।
3. मौलिकता
‘मौलिकता’ का
अर्थ है- आपकी अपनी चीज या सोच। किसी के भावों की कल्पनाओं की या शैली की पूरी नकल
नहीं करनी चाहिए। आपकी रचनाओं में नवीनता, अपनापन, अपनी शैली और अपनी छाप जरूर हो।
मौलिक रचना लिखने के लिए सतत अध्ययन, मनन, चिन्तन और अभ्यास की जरूरत पड़ती है।
4. सरलता
सरलता किसी लेख
का विशेष गुण है। भाषा के कठिन होने और शैली के बोझिल होने से भाव की स्पष्टता जाती
रहती है। प्रयास यह होना चाहिए कि आपकी भाषा अत्यन्त सरल, बोधगम्य और रोचक हो। कठिन
शब्दों के प्रयोग से अशुद्धियों की ज्यादा संभावना होती है और भाषा भी बनावटी हो जाती
है।
एक प्रोफेसर ने एक सामान्य घटना का जिक्र इस प्रकार किया-
”श्रीमन्त, मेरे
द्विचक्र का अग्रचक्र दुश्चक्र में पड़कर वक्र हो गया।” अर्थात महाशय, मेरी साइकिल
का अगला पहिया खड्ड में पड़ने के कारण टेढ़ा हो गया। आप स्वयं कल्पना करें उपर्युक्त
वाक्य कितना अस्पष्ट है और बात कितनी सरल-सी है। हमें इस तरह की रचनाओं से बचना चाहिए।
इसी अस्पष्टता के कारण संस्कृत जो कभी जन-जन की भषा थी वह आम जनता से कटती चली गई और
आज मरणासन्न स्थिति को प्राप्त हुई है।
5. मधुरता
आपकी भाषा और
शैली माधुर्ययुक्त होनी चाहिए। मधुरता सहज ही पाठकों को आकर्षित कर लेती है। अत्यधिक
संयुक्ताक्षरों, सामासिक पदों या संधिपदों के प्रयोग से बचना चाहिए। हाँ, यदि आपकी
शैली मुहावरेदार होती है तो निश्चित रूप से वह पाठकों को आकृष्ट करेगी। ट, ठ, ड, ढ़,
ण, क्ष, त्र-
जैसे वर्ण कटु वर्ण
कहलाते हैं। इन वर्णों से युक्त पदों के प्रयोग से लेख की मधुरता नष्ट होती है। हाँ,
वीररस-प्रधान रचनाओं में संयुक्ताक्षरों एवं टवर्गीय व्यंजनों का प्रयोग अच्छा लगता
है।
वीररस-प्रधान
कुछ पंक्तियाँ देखें
डग-डग-डग-डग रण
के डंके,
मारु के साथ भयद
बाजे।
टप-टप-टप घोड़े
कूद पड़े,
कट-कट मतंग के
रद बाजे।।
शर-दण्ड चले,
कोदण्ड चले,
कर की कहारियाँ
तरज उठीं।
खूनी बरछे-भाले
चमके,
पर्वत पर तोपें
गरज उठीं।।
घनघोर घटा के
बीच चमक,
तड़-तड़ नभ पर
तड़िता तड़की।
झन-झन असि की
झनकार इधर
कायर-दल की छाती
धड़की।।
6. रोचकता
चाहे कैसी भी
भाषा हो, यदि वह रोचक होगी, तो चाव से पढ़ी जाएगी और अपना पूरा प्रभाव छोड़ेगी। अरोचक
लेख अच्छा नहीं माना जाता है। इसलिए पत्र, कहानी, निबंध की भाषा रोचक होनी चाहिए तभी
पढ़नेवाले आद्यन्त पढ़ सकेंगे। रोचकता उत्पन्न करने के लिए कहीं-कहीं हास्य का पुट
भी देना चाहिए किन्तु फूहड़ शब्दों या अश्लील बातों को लिखने से परहेज करना चाहिए।
यही कारण है कि काका हाथरसी के अच्छे खासे व्यंग्य भी अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाए। एक
रोचक लेख का अंश देखें-
”आलस्य अकर्मण्यता
का पिता, पाप का सहचर और रोगों का हेतु है। जीवन के भीतर विनाश के कीटाणु बनकर जब यह
प्रवेश कर जाता है तो आसानी से इसे बाहर नहीं निकाला जा सकता। यह ऐसा राजरोग है जिसका
रोगी कभी नहीं सँभलता। यह आधि भी है और व्याधि भी।”
”समय बदला। शिक्षा
की पद्धति बदली। राजपूतों के शौर्यकाल में शिक्षा का एक ही क्षेत्र था- अस्त्र-शस्त्रों
की झंकार। मुगलों के समय तक संस्कृति के पवित्र आदर्श सर्वथा विलुप्त हो गए थे और विशाल
वासना की सेज पर शिक्षा की संस्कृति को विवश भाव से शिथिल हो जाना पड़ा। अंग्रेजों
ने अपने ढंग से इसकी नकेल थामी और उसे अपने स्वार्थ के अनुकूल घुमाना शुरू और आज की
शिक्षा भी उसी विरासत को ढोती नजर आ रही है।”
7. लाघव
संक्षिप्तता अच्छी
रचना की विशेष पहचान है। साधारण लेखक एक सामान्य विचार को भी बहुत-सारे वाक्य लिखकर
व्यक्त कर पाता है तो उत्तम लेखक कम-से-कम वाक्यों का प्रयोग बड़ी ही आसानी से उसी
बात को अभिव्यक्त कर डालता है। लेकिन इस बात का भी सदैव ख्याल रखना चाहिए कि हम लाघव
के दीवाने होकर कहीं भावों का ही गला तो नहीं घोंट रहे हैं। लेख या किसी रचना को कई
अनुच्छेदों (Paragraph) में बाँटकर लिखना चाहिए। वाक्य तथा अनुच्छेद नपे-तुले होने
चाहिए।
8. कल्पना
भावों या विचारों
की स्वतंत्र उड़ान को कल्पना कहते हैं। कल्पना यथार्थपरक होनी चाहिए। बाबू देवकीनंदन
खत्री-जैसी अति कल्पना मनोरंजन भले ही करे, यथार्थ से कोसों दूर हो जाती है। ऐसी रचनाओं
से पाठकों का मार्गदर्शन नहीं हो पाता है। परन्तु, कई बातें प्रत्यक्ष नहीं होतीं,
कल्पनाजन्य होती हैं। कल्पना-शक्ति के अभाव के कारण बहुत-से विद्यार्थी अच्छा लेख नहीं
लिख पाते हैं हमें किसी विषय-वस्तु पर लिखने के लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना
चाहिए।
a) उसे कई बिन्दुओं
में बाँटे।
b) हर बिन्दु की
व्याख्या करें।
c) एक तरह की तमाम
बातों की चर्चा एक अनुच्छेद में करें।
d) पुनरुक्ति दोष
से बचें।
e) चिन्तन करें यानी
अपनी स्मृति पर जोर देकर कुछ क्षण के लिए सोचें कि इससे मिलती-जुलती बातें आपने कहाँ-कहाँ
सुनी और पढ़ी हैं।
f) किसी लेखक, विचारक
के कथन (विषय से संबंधित) यदि याद हों तो उन्हें ‘कोट’ करें बिल्कुल स्वतंत्र अनुच्छेद
मानकर उद्धरण चिह्न के साथ।
9. चमत्कार
अलंकारों, मुहावरों आदि
के प्रयोगों से भाषा चमत्कारपूर्ण बनती है तथा विस्मयार्थक अव्ययों (जैसे -
काश, हाय, वाह, अहा…… आदि) से शुरू करने पर भाषा में जीवंतता आती है। एक बात का ध्यान
अवश्य रहे कि अलंकार स्वाभाविक हों। अलंकारों की अधिकता और गूढ़ता से रचना के बिगड़ने
का डर भी बना रहता है।
नमूने
अलंकार-विहीन वाक्य :- ज्योति का मुख
बहुत ही आकर्षक है। गर्म प्रदेशों के लोगों का रंग बहुत काला होता है। आसमान में काले-काले
और घने बादलों को देखकर मोर नाच उठता है।
अलंकार-युक्त वाक्य :- ज्योति का मुख
चाँद-सा है। गर्म प्रदेशों के लोगों का रंग तबे को भी मात कर देता है। आसमान में काले-कजरारे
उमड़ते-घुमड़ते बादलों को देख मोर थिरक उठता है।
10. व्यंग्य या व्यंजना
शक्ति
हमारी रचनाओं में कहीं-कहीं व्यंग्यार्थ भी झलकना चाहिए क्योंकि इसके
प्रयोग से रचना की उत्कृष्टता बढ़ती है।
घायल सूबेदार जोगिन्दर सिंह ने चीनी सैनिकों से कहा, ”मैं वही सिपाही
हूँ, जिसने तुम्हारे- जैसे कई सैनिकों को मौत के घाट उतार दिए थे।”
”मैं वही सिपाही हूँ, जिससे चीनी सिपाहियों की रूहें काँप उठती थीं।”
11. भावों की प्रबलता
हमारी रचनाओं में भावपक्ष
प्रबल होने चाहिए। कारण, भाव भाषा के प्राण होते हैं, भाषा तो मात्र भावों की वाहिका
होती है। यदि भाव जोरदार ढंग से न कहा जाय तो भाषा स्वतः स्वादहीन और निष्प्राण हो
जाती है। उसमें किसी को उत्साहित या प्रभावित करने की शक्ति नहीं रह पाती है। निम्नलिखित
वाक्यों को ध्यानपूर्वक देखें
a) गरीबों का जीवन
भी क्या जीवन है? (प्रबल भाव)
गरीबों का जीवन कुछ नहीं है। (निर्बल भाव)
b) भारतीय सैनिक बलहीनता तथा कायरता से सख्त नफ़रत करते हैं। (प्रबल भाव)
भारतीय सैनिक बलहीन और कायर नहीं हैं। (निर्बल भाव)
c) हाय ! सही नहीं जाती ग्रीष्म की उष्णता। (प्रबल भाव)
गर्मी बर्दाश्त नहीं हो रही है। (निर्बल भाव)
12. विराम चिह्नों का उचित प्रयोग
विराम चिह्नों के उचित स्थानों पर
प्रयोग करने के कारण ही ऐसा कहा जाता है कि ‘बेनीपुरी के विराम-चिह्न बोलते है। किस
स्थान पर कौन-सा विराम-चिह्न आना चाहिए लिखते समय इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए
क्योंकि गलत जगहों पर गलत चिह्नों के लग जाने पर अर्थ का अनर्थ हो जाया