अध्याय-14: शिरीष के फूल
शिरीष के फूल’ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा
रचित प्रकृति प्रेम से परिपूर्ण निबंध है। इसमें लेखक ने आँधी, लू और गर्मी की प्रचंडता
में भी अवधूत की तरह अविचल होकर कोमल फूलों का सौंदर्य बिखेर रहे शिरीष के माध्यम से
मनुष्य की जीने की अजेय इच्छा। और कलह-वंद्व के बीच धैर्यपूर्वक लोक-चिंता में लीन
कर्तव्यशील बने रहने को महान मानवीय मूल्य के रूप में स्थापित किया है।
लेखक जहाँ बैठकर लेख लिख रहा था उसके आगे-पीछे,
दाएं-बाएँ शिरीष के फूल थे। अनेक पेड़ जेठ की जलती दोपहर में भी झूम। रहे थे। वे नीचे
से ऊपर तक फूलों से लदे हुए थे। बहुत कम ऐसे पेड़ होते हैं जो प्रचंड गर्मी में भी
महीनों तक फूलों से लदे रहते हैं। कनेर और अमलतास भी गर्मी में फूलते हैं लेकिन केवल
पंद्रह-बीस दिन के लिए। वसंत ऋतु में पलाश का पेड़ भी केवल कुछ दिनों के लिए फूलता
है पर फिर से तूंठ हो जाता है। लेखक का मानना है कि ऐसे कुछ देर फूलने वालों से तो
न फूलने वाले अच्छे हैं। शिरीष का
पेड़ वसंत के आते ही फूलों से लद जाता है और आषाढ़
तक निश्चित रूप से फूलों से यूँ ही भरा रहता है। कभी-कभी तो भादों मास तक भी फूलता
रहता है। भीषण गर्मी में भी शिरीष का पेड़ कालजयी अवधूत की तरह जीवन की अजेयता का मंत्र
पढ़ता रहता है। शिरीष के फूल लेखक के हृदय को आनंद प्रदान करते हैं। पुराने समय में
कल्याणकारी और शुभ समझे जाने वाले शिरीष के छायादार पेड़ों को लोग अपनी चारदीवारी के
पास लगाना पसंद करते थे। अशोक, अरिष्ट, पुन्नाम और शिरीष के छायादार हरे-भरे पेड़ निश्चित
रूप से बहुत सुंदर लगते हैं। शिरीष की डालियाँ अवश्य कुछ कमजोर होती हैं पर इतनी कमजोर
नहीं होती कि उन पर झूले ही न डाले जा सकें। शिरीष के : फूल बहुत कोमल होते हैं। कालिदास
का मानना है कि इसके फूल केवल भौंरों के कोमल पैरों का ही दबाव सहन कर सकते हैं। पक्षियों
के भार को तो वे बिल्कुल सहन नहीं कर पाते।
इसके फूल चाहे बहुत नर्म होते हैं लेकिन इसके फल
बहुत सख्त होते हैं। वे तो साल भर बीत जाने पर भी कभी-कभी पेड़ों पर लटक कर खड़खड़ाते
रहते हैं। लेखक का मानना है कि वे उन नेताओं की तरह हैं जो जमाने का दुःख नहीं देखते
और जब तक नये लोग उन्हें धक्का मार कर निकाल नहीं देते। लेखक को आश्चर्य होता है कि
पुराने की यह अधिकारइच्छा समाप्त क्यों नहीं होती। बुढ़ापा और मृत्यु तो सभी को आना
है। शिरीष के फूलों को झड़ना ही होता है पर पता नहीं वे अड़े क्यों रहते हैं ?
वे मूर्ख हैं जो सोचते हैं कि उन्हें मरना नहीं
है। इस संसार में अमर होकर तो कोई नहीं आया। काल देवता की नजर से तो : कोई भी नहीं
बच पाता। शिरीष का पेड़ ऐसा है जो सुख-दुःख में सरलता से हार नहीं मानता। जब धरती सूर्य
की तेज गर्मी से दहक रही। होती है तब भी वह पता नहीं उससे रस प्राप्त करके किस प्रकार
जीवित रहता है। किसी वनस्पति शास्त्री ने लेखक को बताया है कि वह वायुमंडल से अपना
रस प्राप्त कर लेता है।
लेखक की मान्यता है कि कबीर और कालिदास भी शिरीष
की तरह बेपरवाह रहे होंगे क्योंकि जो कवि अनासक्त नहीं रह सकता वह फक्कड़ नहीं बन सकता।
शिरीष के फूल भी फक्कड़पन की मस्ती लेकर झूमते हैं। कालिदास के अभिज्ञानशाकुंतलम् में
महाराज दुष्यंत : ने शकुंतला का एक चित्र बनाया पर उन्हें बार-बार यही लगता था कि इसमें
कुछ रह गया है। कोई अधूरापन है। काफ़ी देर के बाद उन्हें समझ आया कि शकुंतला के कानों
में वे शिरीष के फूल बनाना तो भूल ही गए थे।
कालिदास की तरह हिंदी के कवि सुमित्रानंदन पंत और
गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर भी कुछ-कुछ अनासक्त थे। शिरीष का पेड़ किसी अवधूत की तरह
लेखक के हृदय में तरंगें जगाता है। वह विपरीत परिस्थितियों में भी स्थिर रह सकता है।
ऐसा करना सबके लिए संभव नहीं होता। हमारे देश में महात्मा गांधी भी ऐसे ही थे। वह ।
भी शिरीष की तरह वायुमंडल से रस खींचकर अत्यंत कोमल और अत्यंत कठोर हो गए थे। लेखक
जब कभी शिरीष को देखता है उसे ।हृदय से निकलती आवाज सुनाई देती है कि अब वह अवधूत यहाँ
नहीं है।
NCERT SOLUTIONS FOR CLASS 12 HINDI AAROH CHAPTER 14
अभ्यास प्रश्न (पृष्ठ संख्या 148-149)
पाठ के साथ
प्रश्न 1. लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत ( संन्यासी
) की तरह क्यों माना है?
उत्तर- लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत कहा है। अवधूत
वह संन्यासी होता है जो विषय-वासनाओं से ऊपर उठ जाता है, सुख-दुख हर स्थिति में सहज
भाव से प्रसन्न रहता है तथा फलता-फूलता है। वह कठिन परिस्थितियों में भी जीवन-रस बनाए
रखता है। इसी तरह शिरीष का वृक्ष है। वह भयंकर गरमी, उमस, लू आदि के बीच सरस रहता है।
वसंत में वह लहक उठता है तथा भादों मास तक फलता-फूलता रहता है। उसका पूरा शरीर फूलों
से लदा रहता है। उमस से प्राण उबलता रहता है और लू से हृदय सूखता रहता है, तब भी शिरीष
कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता का मंत्र प्रचार करता रहता है, वह काल व समय
को जीतकर लहलहाता रहता है।
प्रश्न 2. हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार
की कठोरता भी कभी-कभी जरूरी हो जाती है – प्रस्तुत पीठ के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर- परवर्ती कवि ये समझते रहे कि शिरीष के फूलों
में सब कुछ कोमल है अर्थात् वह तो कोमलता का आगार हैं लेकिन विवेदी जी कहते हैं कि
शिरीष के फूलों में कोमलता तो होती है लेकिन उनका व्यवहार (फल) बहुत कठोर होता है।
अर्थात् वह हृदय से तो कोमल है किंतु व्यवहार से कठोर है। इसलिए हृदय की कोमलता को
बचाने के लिए व्यवहार का कठोर होना अनिवार्य हो जाता है।
प्रश्न 3. विवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल
व संघर्ष से भरी स्थितियों में अविचल रहकर जिजीविषु बने रहने की सीख दी है। स्पष्ट
करें।
उत्तर- द्रविवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल
व संघर्ष से भरी जीवन-स्थितियों में अविचल रहकर जिजीविषु बने रहने की सीख दी है। शिरीष
का वृक्ष भयंकर गरमी सहता है, फिर भी सरस रहता है। उमस व लू में भी वह फूलों से लदा
रहता है। इसी तरह जीवन में चाहे जितनी भी कठिनाइयाँ आएँ मनुष्य को सदैव संघर्ष करते
रहना चाहिए। उसे हार नहीं माननी चाहिए। भ्रष्टाचार, अत्याचार, दंगे, लूटपाट के बावजूद
उसे निराश नहीं होना चाहिए तथा प्रगति की दिशा में कदम बढ़ाते रहना चाहिए।
प्रश्न 4. हाय, वह अवधूत आज कहाँ है! ऐसा कहकर लेखक
ने आत्मबल पर देहबल के वर्चस्व की वर्तमान सभ्यता के संकट की ओर संकेत किया है। कैसे?
उत्तर- लेखक कहता है कि आज शिरीष जैसे अवधूत नहीं
रहे। जब-जब वह शिरीष को देखता है तब-तब उसके मन में ‘हूक-सी’ उठती है। वह कहता है कि
प्रेरणादायी और आत्मविश्वास रखने वाले अब नहीं रहे। अब तो केवल देह को प्राथमिकता देने
वाले लोग रह रहे हैं। उनमें आत्मविश्वास बिलकुल नहीं है। वे शरीर को महत्त्व देते हैं,
मन को नहीं। इसीलिए लेखक ने शिरीष के माध्यम से वर्तमान सभ्यता का वर्णन किया है।
प्रश्न 5. कवि ( साहित्यकार) के लिए अनासक्त योगी
की स्थित प्रज्ञता और विदग्ध प्रेम का हृदय एक साथ आवश्यक है। ऐसा विचार प्रस्तुत कर
लेखक ने साहित्य कर्म के लिए बहुत ऊँचा मानदंड निर्धारित किया है। विस्तारपूर्वक समझाइए।
उत्तर- विचार प्रस्तुत करके लेखक ने साहित्य-कम
के लिए बहुत ऊँचा मानदंड निर्धारित किया हैं/विस्तारपूर्वक समझाएँ/ उत्तर लेखक का मानना
है कि कवि के लिए अनासक्त योगी की स्थिर प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय का होना
आवश्यक है। उनका कहना है कि महान कवि वही बन सकता है जो अनासक्त योगी की तरह स्थिर-प्रज्ञ
तथा विदग्ध प्रेमी की तरह सहृदय हो। केवल छंद बना लेने से कवि तो हो सकता है, किंतु
महाकवि नहीं हो सकता। संसार की अधिकतर सरस रचनाएँ अवधूतों के मुँह से ही निकलती हैं।
लेखक कबीर व कालिदास को महान मानता है क्योंकि उनमें अनासक्ति का भाव है। जो व्यक्ति
शिरीष के समान मस्त, बेपरवाह, फक्कड़, किंतु सरस व मादक है, वही महान कवि बन सकता है।
सौंदर्य की परख एक सच्चा प्रेमी ही कर सकता है। वह केवल आनंद की अनुभूति के लिए सौंदर्य
की उपासना करता है। कालिदास में यह गुण भी विद्यमान था।
प्रश्न 6. सर्वग्रासी काल की मार से बचते हुए वही
दीर्घजीवी हो सकता है जिसने अपने व्यवहार में जड़ता छोड़कर नित बदल रही स्थितियों में
निरंतर अपनी गतिशीलता बनाए रखी है। पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर- परिवर्तन प्रकृति का नियम है। मनुष्य को
समयानुसार परिवर्तन करते रहना चाहिए। एक ही लीक पर चलने वाला व्यक्ति पिछड़ जाता है।
शिरीष के फूल हमें यही सिखाते हैं। वह हर मौसम में अपने को और अपने स्वभाव को बदल लेता
है। इसी कारण वह निर्लिप्त भाव से वसंत, आषाढ़ और भादों में खिला रहता है। प्रचंड लू
और उमस को सहन करता है। लेकिन फिर भी खिला रहता है। फूलों के माध्यम से कोमल व्यवहार
करता है तो फलों के माध्यम से कठोर व्यवहार। इसीलिए वह दीर्घजीवी बन जाता है। मनुष्य
को भी ऐसा ही करना चाहिए।
प्रश्न 7. आशय स्पष्ट कीजिए
i.
दुरंत प्राणधारा और
सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं,
वहीं देर तक बने रहें तो कालदेवता की आँख बचा पाएँगे। भोले हैं वे। हिलते डुलते रहो,
स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हैं। जमे कि
मरे।
ii.
जो कवि अनासक्त नहीं
रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी
क्या कवि है?…मैं कहता हूँ कि कवि बनना है मेरे दोस्तों, तो फक्कड़ बनो।
iii.
फल हो या पेड़, वह
अपने-आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अंगुली है।
वह इशारा है।
उत्तर-
i.
लेखक कहता है कि संसार
में जीवनी शक्ति और सब जगह समाई कालरूपी अग्नि में निरंतर संघर्ष चलता रहता है। बुद्धिमान
निरंतर संघर्ष करते हुए जीवनयापन करते हैं। संसार में मूर्ख व्यक्ति यह समझते हैं कि
वे जहाँ हैं, वहीं देर तक डटे रहेंगे तो कालदेवता की नजर से बच जाएँगे। वे भोले हैं।
उन्हें यह नहीं पता कि एक जगह बैठे रहने से मनुष्य का विनाश हो जाता है। लेखक गतिशीलता
को ही जीवन मानता है। जो व्यक्ति हिलते-डुलते रहते हैं, स्थान बदलते रहते हैं तथा प्रगति
की ओर बढ़ते रहते हैं, वे ही मृत्यु से बच सकते हैं। लेखक जड़ता को मृत्यु के समान
मानता है तथा गतिशीलता को जीवन।
ii.
लेखक कहता है कि कवि
को सबसे पहले अनासक्त होना चाहिए अर्थात तटस्थ भाव से निरीक्षण करने वाला होना चाहिए।
उसे फक्कड़ होना चाहिए अर्थात उसे सांसारिक आकर्षणों से दूर रहना चाहिए। जो अपने किए
कार्यों का लेखा-जोखा करता है, वह कवि नहीं बन सकता। लेखक का मानना है कि जिसे कवि
बनना है, उसे फक्कड़ बनना चाहिए।
iii.
लेखक कहता है कि फल
व पेड़-दोनों का अपना अस्तित्व है। वे अपने-आप में समाप्त नहीं होते। जीवन अनंत है।
फल व पेड़, वे किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई औगुली हैं। यह संकेत है कि
जीवन में अभी बहुत कुछ है। सुंदरता व सृजन की सीमा नहीं है। हर युग में सौंदर्य व रचना
का स्वरूप अलग हो जाता है।
पाठ के आसपास
प्रश्न 1. शिरीष के पुष्य को शीतपुष्प भी कहा जाता
है। ज्येष्ठ माह की प्रचंड गरमी में फूलने वाले फूल को शीतपुष्प संज्ञा किस आधार पर
दी गई होगी?
उत्तर- शिरीष का फूल प्रचंड गरमी में भी खिला रहता
है। वह लू और उमस में भी जोर शोर से खिलता है अर्थात् विषम परिस्थितियों में भी वह
समता का भाव रखता है। इसीलिए लेखक ने शिरीष को शीतपुष्प का अर्थ है ठंडक देने वाला
फूल और शिरीष का फूल भयंकर गरमी में भी ठंडक प्रदान करता है।
प्रश्न 2. कोमल और कठोर दोनों भाव किस प्रकार गांधी
जी के व्यक्तित्व की विशेषता बन गए?
उत्तर- गांधी जी सत्य, अहिंसा, प्रेम आदि कोमल भावों
से युक्त थे। वे दूसरे के कष्टों से द्रवित हो जाते थे। वे अंग्रेजों के प्रति भी कठोर
न थे। दूसरी तरफ वे अनुशासन व नियमों के मामले में कठोर थे। वे अपने अधिकारों के लिए
डटकर संघर्ष करते थे तथा किसी भी दबाव के आगे झुकते नहीं थे। ब्रिटिश साम्राज्य को
उन्होंने अपनी दृढ़ता से ढहाया था। इस तरह गांधी के व्यक्तित्व की विशेषता-कोमल व कठोर
भाव बन गए थे।
प्रश्न 3. आजकल अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में भारतीय
फूलों की बहुत माँग है। बहुत से किसान साग-सब्ज़ी व अन्न उत्पादन छोड़ फूलों की खेती
की ओर आकर्षित हो रहे हैं। इसी मुद्दे को विषय बनाते हुए वाद-विवाद प्रतियोगिता का
आयोजन करें।
उत्तर- वाद-विश्व के सभी प्रमुख देशों में भारतीय
फूलों की माँग सबसे ज्यादा है। टनों की मात्रा में भारतीय फूल अन्य देशों में निर्यात
हो रहे, जिस कारण भारत सरकार के राजस्व में भी अतिशय वृद्धि हो रही है। भारतीय फूलों
का स्तर बहुत ऊँचा है। इस क्वालिटी और इतने प्रकार के फूल अन्य स्थानों पर मिलना संभव-सा
प्रतीत नहीं होता। इसकी खेती करके कुछ ही समय में अच्छा लाभ अर्जित किया जा सकता है।
इसीलिए किसान लोग फूलों की खेती को ज्यादा महत्त्व दे रहे हैं। विवाद-चूँकि भारतीय
फूल विदेश में निर्यात हो रहे हैं इसलिए लोगों को आकर्षण फूलों की खेती में ज्यादा
हो गया है। इस कारण वे मूल फ़सलों का उत्पादन नहीं कर रहे जिससे अनिवार्य वस्तुओं की
कीमतें बढ़ती जा रही हैं। अन्न उत्पादन लगातार कम होता जा रहा है। अपने थोड़े-से लाभ
के लिए किसान लोग करोड़ों देशवासियों को महँगी वस्तुएँ खरीदने पर मजबूर कर रहे हैं।
प्रश्न 4. हज़ारी प्रसाद विवेदी ने इस पाठ की तरह
ही वनस्पतियों के संदर्भ में कई व्यक्तित्व व्यंजक ललित निबंध और लिखें हैं- कुटज,
आम फिर बौरा गए, अशोक के फूल, देवदारु आदि। शिक्षक की सहायता से उन्हें ढूंढ़िए और
पढ़िए।
उत्तर- विद्यार्थी स्वयं करें।
प्रश्न 5. विवेदी जी की वनस्पतियों में ऐसी रुचि
का क्या कारण हो सकता है? आज साहित्यिक रचना फलक पर प्रकृति की उपस्थिति न्यून से न्यून
होती जा रही है। तब ऐसी रचनाओं का महत्त्व बढ़ गया है। प्रकृति के प्रति आपका दृष्टिकोण
रुचिपूर्ण या उपेक्षामय है? इसका मूल्यांकन करें।
उत्तर- विवेदी जी का जीवन प्रकृति के उन्मुक्त आँगन
में ज्यादा रमा है। प्रकृति उनके लिए शक्ति और प्रेरणादायी रही है इसीलिए उन्होंने
अपने साहित्य में प्रकृति का चित्रण किया है। वे वनस्पतियाँ हमारे जीवन का आधार हैं।
इनके बिना जीवन की कल्पना करना असंभव है। कवि क्योंकि कुछ ज्यादा ही भावुक या संवेदनशील
होता है, इसीलिए वह प्रकृति के प्रति ज्यादा संजीदा हो जाता है। मैं स्वयं प्रकृति
के प्रति रुचिपूर्ण रवैया रखता हूँ। प्रकृति को जीवन शक्ति के रूप में ग्रहण किया जाना
चाहिए। प्रकृति के महत्त्व को रेखांकित करते हुए पंत जी कहते हैं –
छोड़ दूमों की मृदुल छाया
बदले! तेरे बाल जाल में कैसे उलझा हूँ लोचन?
यदि हम प्रकृति को सहेजकर रखेंगे तो हमारा जीवन
सुगम और तनाव रहित होगा। प्रकृति संजीवनी है। अतः इसकी उपेक्षा करना अपने अस्तित्व
को खतरे में डालने जैसा है।
भाषा की बात
प्रश्न 1. दस दिन फूले फिर खंखड़-खंखड़ इस लोकोक्ति
से मिलते-जुलते कई वाक्यांश पाठ में हैं, उन्हें छाँट कर लिखें।
उत्तर-
·
ऐसे दुमदारों से तो
लँडूरे भले।
·
मेरे मानस में थोड़ा
हिल्लोल ज़रूर पैदा करते हैं।
·
वे चाहें तो लोहे का
पेड़ बनवा लें।
·
किसी प्रकार जमाने
का रुख नहीं पहचानते।
·
धरा को प्रमान यही
तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना।
·
न ऊधो का लेना न माधो
का देना।
·
कालदेवता की आँख बचा
जाएँ।
·
रह-रहकर उसका मन खीझ
उठता था।
·
खून-खच्चर का बवंडर
बह गया।