रस का शाब्दिक अर्थ है – निचोड़। काव्य में जो आनन्द आता है वह ही काव्य
का रस है। काव्य में आने वाला आनन्द अर्थात् रस लौकिक न होकर अलौकिक होता है। रस काव्य की आत्मा है। संस्कृत में कहा गया
है कि “रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्” अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है।
·भरतमुनिकेअनुसार
8 रसहैं।
·शांतरसको
9 वाँरसमाननेवाले
– उद्भट
·वात्सल्यरसको
10 वाँरसमाननेवाले
– पं. विश्वनाथ
·भक्तिरसको
11 वाँरसमाननेवाले
– भानुदत्त, गोस्वामी
·प्रेयाननामकरसकेप्रतिष्ठापक
– रुद्रट
रस
स्थायीभाव
शृंगार
रति
हास्य
हास
करुण
शोक
रौद्र
क्रोध
वीर
उत्साह
भयानक
भय
वीभत्स
जुगुप्सा
अद्भुत
विस्मय
शांत
निर्वेद
वात्सल्य
वत्सलता
भक्ति
ईश्वरविषयकरति
प्रेयान
स्नेह
भारतीय काव्यशास्त्र के विभिन्न
सम्प्रदायों में रस सिद्धान्त सबसे प्राचीन सिद्धान्त है। रस सिद्धान्त का विशद
एवं प्रामाणिक विवेचन भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में ही सर्वप्रथम उपलब्ध होता है।
आचार्य विश्वनाथ – ’वाक्यं
रसात्मकं काव्यम्’
·काव्यकेपठन–श्रवण,
दर्शन से प्राप्त होने वाला लोकोत्तर आनन्द ही आस्वाद दशा में रस कहलाता है।
·रसकीनिष्पत्तिसामाजिककेहृदयमेंतभीहोतीहै,
जबउसकेहृदयमेंरजोगुणऔरतमोगुणकातिरोभावहोकरसत्वगुणकाउद्रेकहोताहै।इसमेंममत्वऔरपरत्वकीभावनातथासांसारिकराग-द्वेष
का पूर्णतया लोप हो जाता है
·रस अखण्ड होता है। सहृदय को विभाव
अनुभाव व्यभिचारी भावों की पृथक्-पृथक् अनुभूति न होकर समन्वित अनुभूति होती है।
इस मत के अनुसार जिस प्रकार नाना
व्यंजनों के संयोग से भोजन करते समय पाक रसों का आस्वादन होता है। उसी प्रकार
काव्य या नाटक के अनुशीलन से अनेक भावों का संयोग होता है, जो आस्वाद-दशा में ’रस’
कहलाता है।
·परवर्तीकालमेंहिन्दीकेकवियोंएवंआचार्योंनेवात्सल्यरसकास्थायीभाव’वत्सल’स्वीकारकियाहैतथाभक्ति
रस में भक्तवत्सल्य रति को ग्यारहवाँ स्थायी भाव स्वीकार किया है।
भरतमुनिनेअनुभाावकेतीनभेद
(आंगिक,
वाचिक,
सात्त्विक)
किएहैं।भानुदत्तनेइसकेचारभेदमाने
जो परवर्ती आचार्यों ने स्वीकार किए –
1.आंगिक या कायिक
अनुभाव – शरीर की चेष्टाओं से व्यक्त कार्य,
जैसे-भू्र संचालन, आलिंगन, कटाक्षपात, चुम्बन आदि आंगिक अनुभाव होते हैं।
2.वाचिक अनुभाव –
वाणी के द्वारा मनोभावों की अभिव्यक्ति (परस्परालाप) इसमें होती है, इसे ’मानसिक’
अनुभाव भी कहा गया है।
3.सात्विक अनुभाव –
ये अन्तःकरण की वास्तविक दशा के प्रकाशक होते हैं। सत्व से उत्पन्न होने के कारण
इन्हें सात्विक कहा जाता है। सात्विक अनुभाव आठ हैं-स्तम्भ, स्वेद, रोमांच, वेपथु,
स्वरभंग, वैवर्ण्य, अश्रु और प्रलय।
4.आहार्य अनुभाव –
नायक-नायिका के द्वारा पात्रानुसार, वेशभूषा, अलंकार आदि को धारण करना अथवा देशकाल
का कृत्रिम रूप में उपस्थापन करना आहार्य अनुभाव कहलाता है।
4.व्यभिचारी (संचारी) भाव
विविधम्आभिमुख्येनरसेषुचरन्तीतिव्याभिचारिणः
व्यभिचारी
(संचारी) भाव स्थायी भाव के साथ-साथ संचरण करते हैं, इनके द्वारा स्थायी भाव की स्थिति
की पुष्टि होती है। एक रस के स्थायी भाव के साथ अनेक संचारी भाव आते हैं तथा एक
संचारी किसी एक स्थायी भाव के साथ या रस के साथ नहीं रहता है, वरन् अनेक रसों के
साथ संचरण करता है, यही उसकी व्यभिचार की स्थिति है।
’नागानन्द’रचनाकेपश्चात्’शान्त
रस’, महाकवि सूरदास की रचनाओं से ’वात्सल्य रस’, ’भक्तिरसामृत सिंधु’ और
’उज्जवलनीलमणि’ नामक ग्रन्थों की रचना के पश्चात् ’भक्ति रस’ को स्वीकार किया गया।
इस प्रकार रसों की कुल संख्या ग्यारह हो गई।
आचार्य विश्वनाथ –
’जहाँ एक-दूसरे के प्रेम में अनुरक्त नायक-नायिका दर्शन-स्पर्शन आदि का सेवन करते
हैं वह संयोग शृंगार कहलाता है।’
संयोग- शृंगार के वण्र्य विषय में प्रेम की
उत्पत्ति, आलम्बन एवं क्रीङाएँ होती हैं। उत्पत्ति प्रत्यक्ष दर्शन, गुण श्रवण,
चित्र दर्शन या स्वप्न दर्शन द्वारा होती है। यथा-