Sudama Charit Class 8 Worksheet With Answers

"सुदामा चरित" (Sudama Charit), a heartwarming chapter in Class 8 Hindi Vasant textbook, beautifully narrates the story of Sudama, a childhood friend of Lord Krishna. This chapter is not just a tale but a rich source of moral and cultural values, making it an essential part of the curriculum. Our resources are crafted to provide students with a deep and comprehensive understanding of this chapter.

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For those preparing for exams, the Sudama Charit MCQs are invaluable. They cover key aspects of the chapter and are an excellent tool for self-assessment and revision.

Additionally, we have Sudama Charit Class 8 worksheets that delve into the details of the chapter, enabling students to explore and understand the nuances of the story and its characters.

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The Sudama Charit question answers and the भावार्थ (Bhavarth) provide in-depth explanations and interpretations of the chapter, helping students to comprehend the deeper meanings and morals of the story.

Furthermore, the availability of Sudama Charit in PDF format makes it convenient for students and teachers alike to access and utilize these resources efficiently.

In summary, our comprehensive resources for "सुदामा चरित" (Sudama Charit) Class 8 are designed to cater to every educational need, from detailed worksheets to insightful question-answers. These materials not only aid in academic learning but also in imbibing the timeless values and lessons that the story of Sudama and Krishna imparts.

सारांश

दोहा

सीस पगा न झँगा तन में, प्रभु ! जाने को आहि बसै केहि ग्रामा।

धोती फटी-सी लटी दुपटी, अरु पाँय उपानह को नहिं सामा।

द्वार खड़ो द्धिज दुर्बल एक, रह्मो चकिसों बसुधा अभिरामा।

पूछत दीनदयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा।

भावार्थ

उपरोक्त पंक्तियों में जब सुदामा द्वारिका में कृष्ण के महल के सामने जा पहुंचे और उन्होंने महल के द्वारपाल से कृष्ण से मिलने की इच्छा जताई। तब द्वारपाल ने महल के अंदर जाकर श्री कृष्ण को बाहर खड़े सुदामा के बारे में कुछ इस तरह बताया।  

द्वारपाल श्रीकृष्ण से कहता हैं हे प्रभु !! महल के बाहर एक व्यक्ति बहुत ही दयनीय स्थिति में खड़ा है और आपके बारे में पूछ रहा है। उसके सिर पर न तो पगड़ी है और न ही तन पर कोई झगुला यानि कुर्ता है। उसने यह भी नहीं बताया कि वह किस गांव से पैदल चलकर यहां आया है।

उसने अपने शरीर पर एक फटी सी धोती पहनी हैं और एक मैला सा दुपट्टा (गमछा) ओढ़ा है। यहां तक कि उसके पैरों में जूते या चप्पल भी नहीं हैं।

द्वारपाल आगे कहता हैं। हे प्रभु !! महल के दरवाजे पर एक बहुत ही कमजोर व गरीब ब्राह्मण खड़ा होकर द्वारिका नगरी को बड़ी हैरानी से देख रहा है और आपके बारे में पूछ रहा है। साथ में अपना नाम सुदामा बता रहा है। 

दोहा

ऐसे बेहाल बिवाइन सों , पग कंटक जाल लगे पुनि जोए।

हाय ! महादुख पायो सखा , तुम आए इतै न कितै दनि खोए।

देखि सुदामा की दीन दसा , करुना करिकै करुनानिधि रोए।

पानी परात को हाथ छुयो नहिं , नैनन के जल सों पग धोए।

भावार्थ 

द्वारपाल से सुदामा के विषय में सुनकर श्रीकृष्ण दौड़े – दौड़े महल के बाहर आए और उन्होंने सुदामा को गले लगा लिया। वो बड़े आदर सत्कार के साथ उन्हें महल के अंदर ले गए। पैदल चलने से सुदामा के पैरों में अनगिनत छाले पड़ चुके थे और जगह – जगह काँटे भी चुभे हुए थे।

श्रीकृष्ण ने सुदामा को प्यार से एक आसन पर बिठाया और उनके पैरों से एक – एक कांटे को खोज कर निकालने लगे। कृष्ण दुखी होकर सुदामा से कहते हैं कि हे सखा!! तुम इतने लम्बे समय से अपना जीवन दुख और कष्ट में व्यतीत कर रहे थे फिर भी तुम मुझसे मिलने क्यों नहीं आए ?

उन्होंने अपने बालसखा सुदामा के पैर धोने के लिए परात (पीतल का बर्तन) में पानी मंगवाया । लेकिन सुदामा की दीनहीन दशा देखकर कृष्ण रो पड़े और उन्होंने परात के पानी को हाथ लगाये बिना ही अपने आंसुओं से ही सुदामा के पैर धो डाले। 

दोहा

कछु भाभी हमको दियो , सो तुम काहे न देत। 

चाँपि पोटरी काँख में , रहे कहो केहि हेतु।। 

भावार्थ

सुदामा का खूब-खूब आदर सत्कार करने के बाद कृष्ण उनसे कहते हैं कि “भाभी ने मेरे लिए कुछ उपहार तो अवश्य भेजा है । तुमने वह उपहार की पोटली अपने बगल में क्यों छुपा कर रखी है। उसे मुझे देते क्यों नहीं हो ? तुम अभी भी वैसे ही हो।”

दोहा

आगे चना गुरुमातु दए ते , लए तुम चाबि हमें नहिं दीने। 

स्याम कह्यो मुसकाय सुदामा सों , ‘‘चोरी की बान में हौं जू प्रवीने।। 

पोटरी काँख में चाँपि रहे तुम , खोलत नाहिं सुधा रस भीने। 

पाछिलि बानि अजौ न तजो तुम , तैसई भाभी के तंदुल कीन्हें।।”

भावार्थ 

उपरोक्त पंक्तियों में कृष्ण सुदामा को बचपन की याद दिलाते हैं और कहते हैं कि हे सखा !! तुम्हें याद है बचपन में जब गुरु माता ने हमें चने खाने को दिए थे। तब तुमने मेरे हिस्से के चने भी चुपके चुपके अकेले ही खा लिए थे। मुझे नहीं दिए थे।

श्याम मुस्कुराते हुए आगे कहते हैं कि “लगता हैं कि तुम अब चोरी करने में काफी प्रवीण (चालाक) हो गए हो। इसीलिए आज भी भाभी ने मेरे लिए जो उपहार भेजा हैं। तुम उसे अपने बगल में छुपाये बैठे हो। उस भीनी – भीनी सुगंधित वस्तु को तुम , मुझे क्यों नहीं दे रहे हो।

लगता हैं तुम्हारी पिछली चोरी करने की आदत अभी गई नहीं हैं। इसीलिए गुरु माता के चनों के जैसे ही तुम , भाभी के भेजे व्यजंन भी मुझे नहीं दे रहे हो”। 

दोहा

वह पुलकनि , वह उठि मिलनि , वह आदर की बात। 

वह पठवनि गोपल की , कछू न जानी जात।।

घर-घर कर ओड़त फिरे , तनक दही के काज। 

कहा भयो जो अब भयो , हरि को राज-समाज। 

हौं आवत नाहीं हुतौ , वाही पठयो ठेलि।। 

अब कहिहौं समुझाय कै, बहु धन धरौ सकेलि।। 

भावार्थ 

कृष्णा ने सुदामा की खूब आवभगत की। सुदामा का खूब आदर सत्कार करने के बाद कृष्ण ने उन्हें  खाली हाथ विदा कर दिया।

उपरोक्त पंक्तियों में द्वारिका से खाली हाथ घर लौटते सुदामा के मन में आने वाले अनगिनत विचारों का वर्णन किया गया हैं ।

कृष्ण से विदा लेने के बाद सुदामा अपने घर की तरफ पैदल चल पड़े और मन ही मन सोच रहे थे एक तरफ तो श्री कृष्ण उससे मिलकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्हें इतना आदर , मान सम्मान दिया। और दूसरी तरफ उन्हें खाली हाथ लौटा दिया। सच में गोपाल को समझना किसी के बस की बात नहीं है। 

वो मन ही मन कृष्ण से नाराज हो रहे थे और सोच रहे थे जो व्यक्ति बचपन में जरा सी दही / मक्खन के लिए पूरे गांव के घरों में घूमता फिरता था। उससे मदद की आस लगाना तो बेकार ही है।अब राजा बन कर भी उसने मुझे खाली हाथ लौटा दिया।

सुदामा मन ही मन अपनी पत्नी से भी नाराज होते हैं और सोचते हैं कि मैं तो यहां आना ही नहीं चाहता था। लेकिन उसने ही मुझे जबरदस्ती यहां भेजा। अब उससे जाकर कहूंगा कि कृष्ण ने बहुत सारा धन दिया है। अब इसे संभाल कर रखना । 

दोहा

वैसोई राज समाज बने , गज बाजि घने मन संभ्रम छायो।

कैधों परयो कहुँ मारग भूलि, कि फैरि कै मैं अब द्वारका आयो।। 

भौन बिलोकिबे को मन लोचत, सोचत ही सब गाँव मझायो। 

पूँछत पाँडे फिरे सब सों, पर झोपरी को कहुँ खोज न पायो।।

भावार्थ

यह प्रसंग सुदामा के अपने गांव पहुंचने के बाद का है। सुदामा जब अपने गांव पहुंचते हैं तो वो अपने गांव को पहचान ही नहीं पाते हैं क्योंकि उनका गांव भी द्वारिका नगरी जैसा ही सुंदर हो गया था।

उपरोक्त पंक्तियों में अपनी झोपड़ी की जगह बड़े-बड़े भव्य व आलीशान महल , हाथी घोड़े , गाजे-बाजे आदि को देखकर सुदामा को यह भ्रम होता है कि वह रास्ता भूल कर फिर से द्वारका नगरी तो नहीं पहुंचा गये हैं । लेकिन भव्य महलों को देखने की लालसा से वो गांव के अंदर चले जाते हैं।

तब उन्हें समझ में आता है कि यह उनका अपना ही गांव है। गांव का यह बदला रूप देखकर उन्हें अपनी झोपड़ी की चिंता सताने लगती है। फिर वो लोगों से अपनी झोपड़ी के बारे में पूछते हैं और खुद भी अपनी झोपड़ी को ढूंढने लगते हैं। मगर वो अपनी झोपड़ी को नहीं ढूंढ पाते हैं। 

दोहा

कै वह टूटी-सी छानी हती , कहँ कंचन के अब धाम सुहावत।

कै पग में पनही न हती , कहँ लै गजराजहु ठाढे़ महावत।।

भूमि कठोर पै रात कटै, कहँ कोमल सेज पर नींद न आवत।

कै जुरतो नहिं कोदी सवाँप्रभु के परताप तें दाख न भावत।।

भावार्थ

ऐसा माना जाता है सुदामा ने अपनी बगल में जो पोटली छुपा कर रखी थी उसमें चावल थे। श्रीकृष्ण ने सुदामा से यह कहकर कि यह उपहार भाभी (सुदामा की पत्नी ) ने उनके लिए भेजा है। वो पोटली सुदामा से ले ली और उसमें से दो मुट्ठी चावल खा लिए और उस दो मुट्ठी चावल के बदले में उन्होंने सुदामा को बिना बताए दो लोकों की संपत्ति , धन-धान्य उपहार स्वरूप दे दी।

यह सच्ची मित्रता का अनोखा उदाहरण है जिसमें विपत्ति में पड़े अपने मित्र की मदद भगवान श्री कृष्ण ने बिना कहे ही कर दी। 

उपरोक्त पंक्तियों में सुदामा को जब इस सच्चाई का पता चलता है कि श्री कृष्ण ने उनके बिना कुछ कहे ही उनकी कितनी बड़ी मदद मदद कर दी है और उन्हें अथाह धन संपत्ति व सुख सुविधा उपहार स्वरूप दे दी है। तब उन्हें श्री कृष्ण की महिमा समझ में आती हैं।

अब वो अपने बालसखा श्रीकृष्ण का गुणगान करने लगते हैं और सोचते हैं कहां तो मेरे पास एक टूटी सी झोपड़ी होती थी। अब उसकी जगह सोने का महल खड़ा है। मेरे पास पहनने को जूते तक नहीं थे। अब महावत हाथी लेकर सवारी के लिए सामने खड़ा है।

मैं कठोर जमीन पर सोने वाला दलित ब्राह्मण , अब मुझे नर्म बिस्तर पर भी नींद नहीं आती है। और कभी मेरे पास दो वक्त के खाने के लिए चावल भी नहीं होते थे। अब ढेरों मन चाहे व्यंजन उपलब्ध हैं। यह सब द्वारिकाधीश की ही कृपा से संभव हुआ है। उनकी महिमा जितना गाऔं  उतना कम है। 


 प्रश्न 1 सुदामा की दीनदशा देखकर श्रीकृष्ण की क्या मनोदशा हुई? अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर- सुदामा की दीन-दशा को देखकर श्री कृष्ण अत्यधिक विचलित हो गए। उन्होंने सुदामा से कहा कि तुम इतने कष्ट में रहे और मुझे बताया भी नहीं। सुदामा के पैर धोने के लिए श्रीकृष्ण ने जो पानी मॅगवाया था उसको उन्होंने छुआ तक नहीं। उनकी आँखों से इतने ऑसू निकल रहे थे कि उन आँसुओं से ही उन्होंने सुदामा के पैरों को धो दिया।

प्रश्न 2 "पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सों पग धोए।" पंक्ति में वर्णित भाव का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।

उत्तर- पंक्ति का भाव यह है कि श्रीकृष्ण सुदामा की दीन दशा को देखकर इतने व्याकुल हो गए कि अपनी सुध-बुध ही खो बैठे और मित्र-प्रेम में बहे ऑसुओं से ही उन्होंने मित्र सदामा के चरणों को धो दिया।

प्रश्न 3 "चोरी की बान में हौ जू प्रवीने।"

a.   उपर्युक्त पंक्ति कौन, किससे कह रहा है?

b.   इस कथन की पृष्ठभूमि स्पष्ट कीजिए।

c.   इस उपालंभ शिकायत के पीछे कौन-सी पौराणिक कथा है?

उत्तर-

a.   उपर्युक्त पंक्ति में श्रीकृष्ण अपने मित्र सुदामा को उलाहना दे रहे हैं।

b.   सुदामा की पत्नि ने उन्हे अपने मित्र को देने के लिए कुढ चावल दिए थे, मगर वे संकोच वश उसे श्रीकृष्ण को दे नहीं पा रहे थे। इसीलिए वे उसे अपने पीछे छिपा रहे थे। इसी पर श्रीकृष्ण ने उनसे कहा कि तुम चारी करने में तो बचपन से निपुण हो इसीलिए मेरी भाभी के द्वारा दी गई भेंट मुझे नहीं दे रहे हो।

c.   एक बार गुरुमाता ने दोनों के खाने के लिए लिए चने दिए थे पर उन्होंने श्रीकृष्ण को नहीं दिए और अकेले ही खा गए थे।

प्रश्न 4 द्वारका से खाली हाथ लौटते समय सुदामा मार्ग में क्या-क्या सोचते जा रहे थे? वह कृष्ण के व्यवहार से क्यों खीझ रहे थे? सुदामा के मन की दुविधा को अपने शब्दों में प्रकट कीजिए।

उत्तर- द्वारका से खाली हाथ लौटते समय उन्हें श्रीकृष्ण पर बहुत क्रोध आ रहा था कि कृष्ण ने जो आदर सत्कार दिया और रोकर मित्रता का जो अभिनय किया, वह केवल दिखावा ही था उसे मेरी गरीबी पर भी तरस नहीं आया और खाली हाथ भेज दिया। उन्हें अपने पत्नी पर भी क्रोध आ रहा था कि मेरे मना करने पर भी उसने मुझे कृष्ण के पास भेजा जो थोड़े से चावल थे वे भी कृष्ण ने ले लिए।

प्रश्न 5 अपने गाँव लौटकर जब सुदामा अपनी झोंपड़ी नहीं खोज पाए तब उनके मन में क्या-क्या विचार आए? कविता के आधार पर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- द्वारका से लौटकर जब वे अपने गांव पहुंचे तो वे चकरा गए। उनहें भ्रम हुआ कि कहीं वे फिर से द्वारका तो नहीं आ गए और सभी लोगों से अपनी झोंपड़ी के बारे में पूछते घूम रहे थे।

प्रश्न 6 निर्धनता के बाद मिलने वाली संपन्नता का चित्रण कविता की अंतिम पंक्तियों में वर्णित है। उसे अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर- निर्धनता के बाद श्रीकृष्ण से अपार संपत्ति मिलने के बाद उनकी स्थिति ही बदल गई। कहाँ पैरों में पहनने के लिए चप्पल तक नहीं थी वहीं जमीन पर अब पैर नहीं पड़ रहे थे। टूटी झोंपड़ी के स्थान पर सोने के महले थे। कहॉ जमीन पर सोते थे अब सोने के लिए मखमल के गद्दे थे। अब उनको उस पर भी नींद नहीं आ रही थी। पकवान भी अच्छे नहीं लग रहे थे।

कविता से आगे प्रश्न (पृष्ठ संख्या 71-72)

प्रश्न 1 द्रुपद और द्रोणाचार्य भी सहपाठी थे, इनकी मित्रता और शत्रुता की कथा महाभारत से खोजकर सुदामा के कथानक से तुलना कीजिए।

उत्तर- द्रुपद और द्रोणाचार्य भी सहपाठी थे और उन्होंने अपने निर्धन मित्र द्रोण से राजा बनने पर अपनी आधी गाएं देने का वचन दिया था, मगर राजा बनने पर वे ये सब भूल गए और उनका अपमान भी किया। वहीं दूसरी ओर श्रीकृष्ण अपने मित्र की दयनीय दशा को देखकर अत्यंत दुखी हुए।

प्रश्न 2 उच्च पद पर पहुँचकर या अधिक समृद्ध होकर व्यक्ति अपने निर्धन माता-पिता-भाई-बंधुओं से नजर फेरने लग जाता है, ऐसे लोगों के लिए सुदामा चरित कैसी चुनौती खड़ी करता है? लिखिए।

उत्तर- उच्च पद पर पहुंचकर अपने सगे-संबंधियों को भी न पहचानने और उनका अपमान करने वाले व्यक्तियों के लिए सुदामा चरित एक शिक्षा प्रदान करता कि हम कितने भी बड़े क्यों न हो जाएं हमें घमंड नहीं करना चाहिए और अपनों का आदर करना चाहिए ।

अनुमान और कल्पना प्रश्न (पृष्ठ संख्या 72)

प्रश्न 1 अनुमान कीजिए यदि आपका कोई अभिन्न मित्र आपसे बहुत वर्षों बाद मिलने आए तो आप को कैसा अनुभव होगा?

उत्तर- कोई अभिन्न मित्र यदि मुझसे कई वर्षों बाद मिलने आऐ तो मुझे उस खुशी और आनन्द का अनुभव होगा जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 2 कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीति।

विपति कसौटी जे कसे तेई साँचे मीत।।

इस दोहे में रहीम ने सच्चे मित्र की पहचान बताई है। इस दोहे से सुदामा चरित की समानता किस प्रकार दिखती है? लिखिए।

उत्तर- इस दोहे में रहीम ने सच्चे मित्र की पहचान बताई है उनके अनुसार विपत्ति में खरा उतरने वाला मित्र ही सच्चा मित्र होता है। इस दृष्टि से श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता सर्वोपरि है।

भाषा की बात प्रश्न (पृष्ठ संख्या 72-73)

प्रश्न 1 “पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सो पग धोए”

ऊपर लिखी गई पंक्ति को ध्यान से पढ़िएइसमें बात को बहुत अधिक बढ़ाचढ़ाकर चित्रित किया गया हैजब किसी बात को इतना बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाता है तो वहाँ पर अतिशयोक्ति अलंकार होता हैआप भी कविता में से एक अतिशयोक्ति अलंकार का उदाहरण छाँटिए

उत्तर- अतिशयोक्ति अलंकार के उदाहरण (कविता में से)।

a.   ऐसे बेहाल बिवाइन सों, पग कंटक जाल लगे पुनि जोए

b.   वैसोई राज–समाज बने, गज बाजि घने मन संभ्रम छायो।

c.   कै वह टूटी-सी छानी हती, कहँ कंचन के अब धाम सुहावत

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