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अध्याय-5: गलता लोहा
सारांश
गलता लोहा कहानी में समाज
के जातिगत विभाजन पर कई कोणों से टिप्पणी की गई है। यह कहानी लेखक के लेखन में अर्थ
की गहराई को दर्शाती है। इस पूरी कहानी में लेखक की कोई मुखर टिप्पणी नहीं है। इसमें
एक मेधावी, किंतु निर्धन ब्राहमण युवक मोहन किन परिस्थितियों के चलते उस मनोदशा तक
पहुँचता है, जहाँ उसके लिए जातीय अभिमान बेमानी हो जाता है। सामाजिक विधि-निषेधों को
ताक पर रखकर वह धनराम लोहार के आफर पर बैठता ही नहीं, उसके काम में भी अपनी कुशलता
दिखाता है। मोहन का व्यक्तित्व जातिगत आधार पर निर्मित झूठे भाईचारे की जगह मेहनतकशों
के सच्चे भाईचारे को प्रस्तावित करता प्रतीत होता है मानो लोहा गलकर नया आकार ले रहा
हो।
मोहन के पिता वंशीधर ने
जीवनभर पुरोहिती की। अब वृद्धावस्था में उनसे कठिन श्रम व व्रत-उपवास नहीं होता। उन्हें
चंद्रदत्त के यहाँ रुद्री पाठ करने जाना था, परंतु जाने की तबियत नहीं है। मोहन उनका
आशय समझ गया, लेकिन पिता का अनुष्ठान कर पाने में वह कुशल नहीं है। पिता का भार हलका
करने के लिए वह खेतों की ओर चला, लेकिन हँसुवे की धार कुंद हो चुकी थी। उसे अपने दोस्त
धनराम की याद आ गई। वह धनराम लोहार की दुकान पर धार लगवाने पहुँचा।
धनराम उसका सहपाठी था।
दोनों बचपन की यादों में खो गए। मोहन ने मास्टर त्रिलोक सिंह के बारे में पूछा। धनराम
ने बताया कि वे पिछले साल ही गुजरे थे। दोनों हँस-हँसकर उनकी बातें करने लगे। मोहन
पढ़ाई व गायन में निपुण था। वह मास्टर का चहेता शिष्य था और उसे पूरे स्कूल का मॉनीटर
बना रखा था। वे उसे कमजोर बच्चों को दंड देने का भी अधिकार देते थे। धनराम ने भी मोहन
से मास्टर के आदेश पर डडे खाए थे। धनराम उसके प्रति स्नेह व आदरभाव रखता था, क्योंकि
जातिगत आधार की हीनता उसके मन में बैठा दी गई थी। उसने मोहन को कभी अपना प्रतिद्वंद्वी
नहीं समझा।
धनराम गाँव के खेतिहर या
मजदूर परिवारों के लड़कों की तरह तीसरे दर्जे तक ही पढ़ पाया। मास्टर जी उसका विशेष
ध्यान रखते थे। धनराम को तेरह का पहाड़ा कभी याद नहीं हुआ। इसकी वजह से उसकी पिटाई
होती। मास्टर जी का नियम था कि सजा पाने वाले को अपने लिए हथियार भी जुटाना होता था।
धनराम डर या मंदबुद्ध होने के कारण तेरह का पहाड़ा नहीं सुना पाया। मास्टर जी ने व्यंग्य
किया-‘तेरे दिमाग में तो लोहा भरा है रे। विद्या का ताप कहाँ लगेगा इसमें?”
इतना कहकर उन्होंने थैले
से पाँच-छह दरॉतियाँ निकालकर धनराम को धार लगा लाने के लिए पकड़ा दी। हालाँकि धनराम
के पिता ने उसे हथौड़े से लेकर घन चलाने की विद्या सिखा दी। विद्या सीखने के दौरान
मास्टर त्रिलोक सिंह उसे अपनी पसंद का बेंत चुनने की छूट देते थे, परंतु गंगाराम इसका
चुनाव स्वयं करते थे। एक दिन गंगाराम अचानक चल बसे। धनराम ने सहज भाव से उनकी विरासत
सँभाल ली।
इधर मोहन ने छात्रवृत्ति
पाई। इससे उसके पिता वंशीधर तिवारी उसे बड़ा आदमी बनाने का स्वप्न देखने लगे। पैतृक
धंधे ने उन्हें निराश कर दिया था। वे कभी परिवार का पूरा पेट नहीं भर पाए। अत: उन्होंने
गाँव से चार मील दूर स्कूल में उसे भेज दिया। शाम को थकामाँदा मोहन घर लौटता तो पिता
पुराण कथाओं से उसे उत्साहित करने की कोशिश करते। वर्षा के दिनों में मोहन नदी पार
गाँव के यजमान के घर रहता था। एक दिन नदी में पानी कम था तथा मोहन घसियारों के साथ
नदी पार कर घर आ रहा था। पहाड़ों पर भारी वर्षा के कारण अचानक नदी में पानी बढ़ गया।
किसी तरह वे घर पहुँचे इस घटना के बाद वंशीधर घबरा गए और फिर मोहन को स्कूल न भेजा।
उन्हीं दिनों बिरादरी का
एक संपन्न परिवार का युवक रमेश लखनऊ से गाँव आया हुआ था। उससे वंशीधर ने मोहन की पढ़ाई
के संबंध में अपनी चिंता व्यक्त की तो वह उसे अपने साथ लखनऊ ले जाने को तैयार हो गया।
उसके घर में एक प्राणी बढ़ने से कोई अंतर नहीं पड़ता। वंशीधर को रमेश के रूप में भगवान
मिल गया। मोहन रमेश के साथ लखनऊ पहुँचा। यहाँ से जिंदगी का नया अध्याय शुरू हुआ। घर
की महिलाओं के साथ-साथ उसने गली की सभी औरतों के घर का काम करना शुरू कर दिया। रमेश
बड़ा बाबू था। वह मोहन को घरेलू नौकर से अधिक हैसियत नहीं देता था। मोहन भी यह बात
समझता था। कह सुनकर उसे समीप के सामान्य स्कूल में दाखिल करा दिया गया। कारों के बोझ
व नए वातावरण के कारण वह । अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया। गर्मियों की छुट्टी में भी
वह तभी घर जा पाता जब रमेश या उसके घर का कोई आदमी गाँव जा रहा होता। उसे अगले दरजे
की तैयारी के नाम पर शहर में रोक लिया जाता।
मोहन ने परिस्थितियों से
समझौता कर लिया था। वह घर वालों को असलियत बताकर दुखी नहीं करना चाहता था। आठवीं कक्षा
पास करने के बाद उसे आगे पढ़ने के लिए रमेश का परिवार उत्सुक नहीं था। बेरोज्ग्री का
तर्क देकर उसे तकनी स्कूल में दाखिल करा दिया गया। वह पहले की तरह घर व स्कूल के काम
में व्यस्त रहता। डेढ़-दो वर्ष के बाद उसे कारखानों के चक्कर काटने पड़े। इधर वंशीधर
को अपने बेटे के बड़े अफसर बनने की उम्मीद थी। जब उसे वास्तविकता का पता चला तो उसे
गहरा दुख हुआ। धनराम ने भी उससे पूछा तो उसने झूठ बोल दिया। धनराम ने उन्हें यही कहो-मोहन
लला बचपन से ही बड़े बुद्धमान थे।
इस तरह मोहन और धनराम जीवन
के कई प्रसंगों पर बातें करते रहे। धनराम ने हँसुवे के फाल को बेंत से निकालकर तपाया,
फिर उसे धार लगा दी। आमतौर पर ब्राहमण टोले के लोगों का शिल्पकार टोले में उठना-बैठना
नहीं होता था। काम-काज के सिलसिले में वे खड़े-खड़े बातचीत निपटा ली जाती थी। ब्राहमण
टोले के लोगों को बैठने के लिए कहना भी उनकी मर्यादा के विरुद्ध समझा जाता था। मोहन
धनराम की कार्यशाला में बैठकर उसके काम को देखने लगा।
धनराम अपने काम में लगा
रहा। वह लोहे की मोटी छड़ को भट्टी में गलाकर गोल बना रहा था, किंतु वह छड़ निहाई पर
ठीक से फैंस नहीं पा रही थी। अत: लोहा ठीक ढंग से मुड़ नहीं पा रहा था। मोहन कुछ देर
उसे देखता रहा और फिर उसने दूसरी पकड़ से लोहे को स्थिर कर लिया। नपी-तुली चोटों से
छड़ को पीटते-पीटते गोले का रूप दे डाला। मोहन के काम में स्फूर्ति देखकर धनराम अवाक्
रह गया। वह पुरोहित खानदान के युवक द्वारा लोहार का काम करने पर आश्चर्यचकित था। धनराम
के संकोच, धर्मसंकट से उदासीन मोहन लोहे के छल्ले की त्रुटिहीन गोलाई की जाँच कर रहा
था। उसकी आँखों में एक सर्जक की चमक थी।
NCERT SOLUTIONS
अभ्यास प्रश्न (पृष्ठ संख्या 65-66)
पाठ के
साथ
प्रश्न. 1 कहानी के उस
प्रसंग का उल्लेख करें, जिसमें किताबों की विद्या और घन चलाने की विद्या का जिक्र आया
है?
उत्तर- जिस समय धनराम तेरह
का पहाड़ा नहीं सुना सका तो मास्टर त्रिलोक सिंह ने जबान के चाबुक लगाते हुए कहा कि
‘तेरे दिमाग में तो लोहा भरा है रे! विद्या का ताप कहाँ लगेगा इसमें?’ यह सच है कि
किताबों की विद्या का ताप लगाने की सामथ्र्य धनराम के पिता की नहीं थी। उन्होंने बचपन
में ही अपने पुत्र को धौंकनी फूंकने और सान लगाने के कामों में लगा दिया था। वे उसे
धीरे-धीरे हथौड़े से लेकर घन चलाने की विद्या सिखाने लगे। उपर्युक्त प्रसंग में किताबों
की विद्या और घन चलाने की विद्या का जिक्र आया है।
प्रश्न. 2 धनराम मोहन को
अपना प्रतिद्वंद्वी क्यों नहीं समझता था?
उत्तर- धनम मोहन को अपना
प्रतिद्वंद्वी नहीं समझता था क्योंकि –
·
वह स्वयं को नीची जाति का समझता था। यह बात बचपन से उसके मन में बैठा दी गई थी।
·
मोदन कक्षा का सबसे होशियार लड़का था। वह हर प्रश्न का उत्तर देता था। उसे मास्टर
जी ने पूरी पाठशाला का मॉनीटर बना रखा था। वह अच्छा गाता था।
·
मास्टर जी को लगता था कि एक दिन मोहन बड़ा आदमी बनकर स्कूल तथा उनका नाम रोशन
करेगा।
प्रश्न. 3 धनराम को मोहन
के किस व्यवहार पर आश्चर्य होता है और क्यों?
उत्तर- मोहन ब्राहमण जाति
का था और उस गाँव में ब्राहमण शिल्पकारों के यहाँ उठते-बैठते नहीं थे। यहाँ तक कि उन्हें
बैठने के लिए कहना भी उनकी मर्यादा के विरुद्ध समझा जाता था। मोहन धनराम की दुकान पर
काम खत्म होने के बाद भी काफी देर तक बैठा रहा। इस बात पर धनराम को हैरानी हुई। उसे
अधिक हैरानी तब हुई जब मोहन ने उसके हाथ से हथौड़ा लेकर लोहे पर नपी-तुली चोटें मारी
और धौंकनी फूंकते हुए भट्ठी में लोहे को गरम किया और ठोक-पीटकर उसे गोल रूप दे दिया।
मोहन पुरोहित खानदान का पुत्र होने के बाद निम्न जाति के काम कर रहा था। धनराम शकित
दृष्टि से इधर-उधर देखने लगा।
प्रश्न. 4 मोहन के लखनऊ
आने के बाद के समय को लेखक ने उसके जीवन का एक नया अध्याय क्यों कहा है?
उत्तर- मोहन अपने गाँव
का एक होनहार विद्यार्थी था। पाँचवीं कक्षा तक आते-आते मास्टर जी सदा उसे यही कहते
कि एक दिन वह अपने गाँव का नाम रोशन करेगा। जब पाँचवीं कक्षा में उसे छात्रवृत्ति मिली
तो मास्टर जी की भविष्यवाणी सच होती नज़र आने लगी। यही मोहन जब पढ़ने के लिए अपने रिश्तेदार
रमेश के साथ लखनऊ पहुँचा तो उसने इस होनहार को घर का नौकर बना दिया। बाजार का काम करना,
घरेलु काम-काज में हाथ बँटाना, इस काम के बोझ ने गाँव के मेधावी छात्र को शहर के स्कूल
में अपनी जगह नहीं बनाने दी। इन्हीं स्थितियों के चलते लेखक ने मोहन के जीवन में आए
इस परिवर्तन को जीवन का एक नया अध्याय कहा है।
प्रश्न. 5 मास्टर त्रिलोक
सिंह के किस कथन को लेखक ने ज़बान के चाबुक कहा है और क्यों ?
उत्तर- जब धनराम तेरह का
पहाड़ा नहीं सुना सका तो मास्टर त्रिलोक सिंह ने व्यंग्य वचन कहे ‘तेरे दिमाग में तो
लोहा भरा है रे! विद्या का ताप कहाँ लगेगा इसमें?’ लेखक ने इन व्यंग्य वचनों को ज़बान
के ‘चाबुक’ कहा है। चमड़े की चाबुक शरीर पर चोट करती है, परंतु ज़बान की चाबुक मन पर
चोट करती है। यह चोट कभी ठीक नहीं होती। इस चोट के कारण धनराम आगे नहीं पढ़ पाया और
वह पढ़ाई छोड़कर पुश्तैनी काम में लग गया।
प्रश्न. 6
i.
बिरादरी का यही सहारा होता है।
a.
किसने किससे कहा?
b.
किस प्रसंग में कहा?
c.
किस आशय से कहा?
d.
क्या कहानी में यह आशय स्पष्ट हुआ है?
ii.
उसकी आँखों में एक सर्जक की
चमक थी- कहानी का यह वाक्य
a.
किसके लिए कहा गया है?
b.
किस प्रसंग में कहा गया है?
c.
यह पात्र-विशेष के किन चारित्रिक पहलुओं को उजागर करता है?
उत्तर-
i.
a.
यह कथन मोहन के पिता वंशीधर ने अपने एक संपन्न रिश्तेदार रमेश से कहा।
b.
वंशीधर ने मोहन की पढ़ाई के विषय में चिंता की तो रमेश ने उसे अपने पास रखने
की बात कही। उसने कहा कि मोहन को उसके साथ लखनऊ भेज दीजिए। घर में जहाँ चार प्राणी
है, वहाँ एक और बढ़ जाएगा और शहर में रहकर मोहन अच्छी तरह पढ़ाई भी कर सकेगा।
c.
यह कथन रमेश के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए कहा गया। बिरादरी के लोग ही
एक-दूसरे की मदद करते हैं।
d.
कहानी में यह आशय स्पष्ट नहीं हुआ। रमेश ने अपने वायदे को पूरा नहीं किया तथा
मोहन को घरेलू नौकर बना दिया। उसके परिवार ने उसका शोषण किया तथा प्रतिभाशाली छात्र
का भविष्य चौपट कर दिया। अंत में उसे बेरोज़गार कर घर भेज दिया।
ii.
a.
यह वाक्य मोहन के लिए कहा गया है।
b.
जिस समय मोहन धनराम के आफ़र पर आकर बैठता है और अपना हँसुवा ठीक हो जाने पर भी
बैठा रहता है, उस समय धनराम एक लोहे की छड़ को गर्म करके उसका गोल घेरा बनाने का प्रयास
कर रहा है, पर निहाई पर ठीक घाट में सिरा न फँसने के कारण लोहा उचित ढंग से मुड़ नहीं
पा रहा था। यह देखकर मोहन उठा और हथौड़े से नपी-तुली चोट मारकर उसे सुघड़ गोले का रूप
दे दिया। अपने सधे हुए अभ्यस्त हाथों का कमाल दिखाकर उसने सर्जक की चमकती आँखों से
धनराम की ओर देखा था।
c.
यह कार्य कहानी का प्रमुख पात्र मोहन करता है जो एक ब्राह्मण का पुत्र है। वह
अपने बालसखा धनराम को अपनी सुघड़ता का परिचय देता है। अपनी कुशलता दिखाता है। मोहन
का व्यक्तित्व जातिगत आधार पर निर्मित नहीं वरन् मेहनतकश और सच्चे भाई-चारे की प्रस्तावना
करता प्रतीत होता है। मानो मेहनत करनेवालों का संप्रदाय जाति से ऊपर उठकर मोहन के व्यक्तित्व
के रूप में समाज का मार्गदर्शन कर रहा हो।
पाठ के
आस-पास
प्रश्न. 1 गाँव और शहर,
दोनों जगहों पर चलनेवाले मोहन के जीवन-संघर्ष में क्या फ़र्क है? चर्चा करें और लिखें।
उत्तर- मोहन को गाँव व
शहर, दोनों जगह संघर्ष करना पड़ा। गाँव में उसे परिस्थितिजन्य संघर्ष करना पड़ा। वह
प्रतिभाशाली था। स्कूल में उसका सम्मान सबसे ज्यादा था, परंतु उसे चार मील दूर स्कूल
जाना पड़ता था। उसे नदी भी पार करनी पड़ती थी। बाढ़ की स्थिति में उसे दूसरे गाँव में
यजमान के घर रहना पड़ता था। घर में आर्थिक तंगी थी। शहर में वह घरेलू नौकर का कार्य
करता था। साधारण स्कूल के लिए भी उसे पढ़ने का समय नहीं दिया जाता था। वह पिछड़ता गया।
अंत में उसे बेरोजगार बनाकर छोड़ दिया गया।
प्रश्न. 2 एक अध्यापक के
रूप में त्रिलोक सिंह का व्यक्तित्व आपको कैसा लगता है? अपनी समझ में उनकी खूबियों
और खामियों पर विचार करें।
उत्तर- मास्टर त्रिलोक
सिंह एक सामान्य ग्रामीण अध्यापक थे। उनका व्यक्तित्व गाँव के परिवेश के लिए बिलकुल
सही था।
खूबियाँ
– ग्रामीण क्षेत्रों
में अध्यापन कार्य करने के लिए कोई तैयार ही नहीं होता, पर वे पूरी लगन से विद्यार्थियों
को पढ़ाते थे। किसी और के सहयोग के बिना वे अकेले ही पूरी पाठशाला चलाते थे। वे ज्ञानी
और समझदार थे।
खामियाँ
– अपने विद्यार्थियों
के प्रति मारपीट का व्यवहार करते और मोहन से भी करवाते थे। विद्यार्थियों के मन का
ध्यान रखे बिना ऐसी कठोर बात कहते जो बालक को सदा के लिए निराशा के खंदक में धकेल देती।
भयभीत बालक आगे नहीं पढ़ पाता था।
प्रश्न. 3 गलता लोहा कहानी
का अंत एक खास तरीके से होता है। क्या इस कहानी का कोई अन्य अंत हो सकता है? चर्चा
करें।
उत्तर- कहानी के अंत से
स्पष्ट नहीं होता कि मोहन ने लुहार का काम स्थाई तौर पर किया या नहीं। कहानी का अन्य
तरीके से भी अंत हो सकता था-
i.
शहर से लौटकर हाथ का काम करना।
ii.
मोहन को बेरोजगार देखकर धनराम का व्यंग्य वचन कहना।
iii.
मोहन के माता-पिता द्वारा रमेश से झगड़ा करना आदि।
भाषा की
बात
प्रश्न. 1 पाठ में निम्नलिखित
शब्द लौहकर्म से संबंधित हैं। किसको क्या प्रयोजन है? शब्द के सामने लिखिए –
i.
धौंकनी …
ii.
दराँती …
iii.
सँड़सी ……
iv.
आफर ……
v.
हथौड़ा …
उत्तर-
i.
धौंकनी- यह आग को सुलगाने व धधकाने के काम में आती है।
ii.
दराँती- यह खेत में घास या फसल काटने का काम करती है।
iii.
सँड़सी- यह ठोस वस्तु को पकड़ने का काम करती है तथा कैंची की तरह
होता है।
iv.
आफर- भट्ठी या लुहार की दुकान।
v.
हथौड़ा- ठोस वस्तु पर चोट करने का औज़ार। यह लोहे को पीटता-कूटता
है।
प्रश्न. 2 पाठ में काट-छाँटकर
जैसे कई संयुक्त क्रिया शब्दों का प्रयोग हुआ है। कोई पाँच शब्द पाठ में से चुनकर लिखिए
और अपने वाक्यों में प्रयोग कीजिए।
उत्तर-
i.
उठा-पटक — उखाड़-पछाड़।
वाक्य – संसद की उठा-पटक देखकर हमें राजनेताओं के व्यवहार पर हैरानी होती है।
ii.
उलट-पलट – बार-बार घुमाना,
देखना।
वाक्य – सीता-माता ने राम की अँगूठी को कई बार उलट-पलटकर देखा।
iii.
घूर-घूरकर – क्रोध भरी आँखों
से देखना
वाक्य – मास्टर जी घूर-घूरकर देखते तो सभी सहमकर यथास्थान बैठ जाते थे।
iv.
सोच-समझकर – समझदारी से
वाक्य – पिता जी ने सोच-समझकर ही मुझे लखनऊ भेजा था।
v.
पढ़ा-लिखाकर – पढ़ाई पूरी करवाकर
वाक्य – मोहन के पिता उसे पढ़ा-लिखाकर अफ़सर बनाना चाहते थे।
प्रश्न. 3 बूते का प्रयोग
पाठ में तीन स्थानों पर हुआ है उन्हें छाँटकर लिखिए और जिन संदर्भो में उनका प्रयोग
है, उन संदर्भो में उन्हें स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
i.
बूढ़े वंशीधर के बूते का अब
यह सब काम नहीं रहा।
संदर्भ-लेखक स्पष्ट करना चाहते हैं कि वृद्ध होने के कारण वंशीधर से खेती का
काम नहीं होता।
ii.
दान-दक्षिणा के बूते पर वे
किसी तरह परिवार का आधा पेट भर पाते थे।
संदर्भ-यह वंशीधर की दयनीय दशा का वर्णन करता है, साथ ही पुरोहिती के व्यवसाय
की निरर्थकता को भी बताता है।
iii.
सीधी चढ़ाई चढ़ना पुरोहित के
बूते की बात नहीं थी।
संदर्भ-वंशीधर वृद्ध हो गए। इस कारण वे पुरोहिताई का काम करने में भी समर्थ नहीं
थे
प्रश्न. 4
मोहन! थोड़ा दही तो ला
दे बाजार से।
मोहन! ये कपड़े धोबी को
दे तो आ।
मोहन! एक किलो आलू तो ला
दे।
ऊपर के वाक्यों में मोहन
को आदेश दिए गए हैं। इन वाक्यों में आप सर्वनाम का इस्तेमाल करते हुए उन्हें दुबारा
लिखिए।
उत्तर-
आप! थोड़ा दही तो ला दो
बाजार से।
आप! ये कपड़े धोबी को दे
तो आओ।
आप! एक किलो आलू तो ला
दो।