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This chapter isn't just a tapestry of words but a narrative that captures the essence of Rajasthan's struggle and splendor. Students, here's your chance to unravel the questions that this chapter poses, with answers that illuminate the text's deeper meaning. Each query you encounter is an opportunity to connect with the land's resilient spirit and rich culture.
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सारांश
यह रचना राजस्थान की जल-समस्या
का समाधान मात्र नहीं है, बल्कि यह जमीन की अतल गहराइयों में जीवन की पहचान है। यह
रचना धीरे-धीरे भाषा की ऐसी दुनिया में ले जाती है जो कविता नहीं है, कहानी नहीं है,
पर पानी की हर आहट की कलात्मक अभिव्यक्ति है। लेखक राजस्थान की रेतीली भूमि में पानी
के स्रोत कुंई का वर्णन करता है। वह बताता है कि कुंई खोदने के लिए चेलवांजी काम कर
रहा है। वह बसौली से खुदाई कर रहा है। अंदर भयंकर गर्मी है।
गर्मी कम करने के लिए बाहर
खड़े लोग बीच-बीच में मुट्ठी भर रेत बहुत जोर से नीचे फेंकते हैं। इससे ताजी हवा अंदर
आती है और गहराई में जमा दमघोंटू गर्म हवा बाहर निकलती है। चेलवांजी सिर पर काँसे,
पीतल या अन्य किसी धातु का बर्तन टोप की तरह पहनते हैं, ताकि चोट न लगे। थोड़ी खुदाई
होने पर इकट्ठा हुआ मलवा बाल्टी के जरिए बाहर निकाला जाता है। चेलवांजी कुएँ की खुदाई
व चिनाई करने वाले प्रशिक्षित लोग होते हैं। कुंई कुएँ से छोटी होती है, परंतु गहराई
कम नहीं होती। कुंई में न सतह पर बहने वाला पानी आता है और न भूजल।
मरुभूमि में रेत अत्यधिक
है। यहाँ वर्षा का पनी शीघ्र भूमि में समा जाता है। रेत की सतह से दस पंद्रह हाथ से
पचास-साठ हाथ नीचे खड़िया पत्थर की पट्टी चलती है। इस पट्टी से मिट्टी के परिवर्तन
का पता चलता है। कुओं का पानी प्रायः खारा होता है। पीने के पानी के लिए कुंइयाँ बनाई
जाती हैं। पट्टी का तभी पता चलता है जहाँ बरसात का पानी एकदम नहीं समाता। यह पट्टी
वर्षा के पानी व गहरे खारे भूजल को मिलने से रोकती है। अत: बरसात का पानी रेत में नमी
की तरह फैल जाता है। रेत के कण अलग होते हैं, वे चिपकते नहीं। पानी गिरने पर कण भारी
हो जाते हैं, परंतु अपनी जगह नहीं छोड़ते। इस कारण मरुभूमि में धरती पर दरारें नहीं
पड़तीं वर्षा का भीतर समाया जल अंदर ही रहता है। यह नमी बूंद-बूंद करके कुंई में जमा
हो जाती है।
राजस्थान में पानी को तीन
रूपों में बाँटा है- पालरपानी यानी सीधे बरसात से मिलने वाला पानी है। यह धरातल पर
बहता है। दूसरा रूप पातालपानी है जो कुंओं में से निकाला जाता है तीसरा रूप है-रेजाणीपानी।
यह धरातल से नीचे उतरा, परंतु पाताल में न मिलने वाला पानी रेजाणी है। वर्षा की मात्रा
‘रेजा’ शब्द से मापी जाती है जो धरातल में समाई वर्षा को नापता है। यह रेजाणीपानी खड़िया
पट्टी के कारण पाताली पानी से अलग रहता है अन्यथा यह खारा हो जाता है। इस विशिष्ट रेजाणी
पानी को समेटती है कुंई। यह चार-पाँच हाथ के व्यास तथा तीस से साठ-पैंसठ हाथ की गहराई
की होती है। कुंई का प्राण है-चिनाई। इसमें हुई चूक चेजारो के प्राण ले सकती है।
हर दिन की खुदाई से निकले
मलबे को बाहर निकालकर हुए काम की चिनाई कर दी जाती है। कुंई की चिनाई ईट या रस्से से
की जाती है। कुंई खोदने के साथ-साथ खींप नामक घास से मोटा रस्सा तैयार किया जाता है,
फिर इसे हर रोज कुंई के तल पर दीवार के साथ सटाकर गोला बिछाया जाता है। इस तरह हर घेरे
में कुंई बँधती जाती है। लगभग पाँच हाथ के व्यास की कुंई में रस्से की एक कुंडली का
सिर्फ एक घेरा बनाने के लिए लगभग पंद्रह हाथ लंबा रस्सा चाहिए। इस तरह करीब चार हजार
हाथ लंबे रस्से की जरूरत पड़ती है।
पत्थर या खींप न मिलने
पर चिनाई का कार्य लकड़ी के लंबे लट्ठों से किया जाता है। ये लट्ठे, अरणी, बण, बावल
या कुंबट के पेड़ों की मोटी टहनियों से बनाए जाते हैं। ये नीचे से ऊपर की ओर एक-दूसरे
में फँसाकर सीधे खड़े किए जते हैं तथा फिर इन्हें खींप की रस्सी से बाँधा जाता है।
खड़िया पत्थर की पट्टी आते ही काम समाप्त हो जाता है और कुंई की सफलता उत्सव का अवसर
बनती है। पहले काम पूरा होने पर विशेष भोज भी होता था। चेजारो की तरह-तरह की भेंट,
वर्ष-भर के तीज-त्योहारों पर भेंट, फसल में हिस्सा आदि दिया जाता था, परंतु अब सिर्फ
मजदूरी दी जाती है।
जैसलमेर में पालीवाल ब्राह्मण
व मेघवाल गृहस्थी स्वयं कुंइयाँ खोदते थे। कुंई का मुँह छोटा रखा जाता है। इसके तीन
कारण हैं। पहला रेत में जमा पानी से बूंदें धीरे-धीरे रिसती हैं। मुँह बड़ा होने पर
कम पानी अधिक फैल जाता है, अत: उसे निकाला नहीं जा सकता। छोटे व्यास की कुंई में पानी
दो-चार हाथ की ऊँचाई ले लेता है। पानी निकालने के लिए छोटी चड़स का उपयोग किया जाता
है। दूसरे, छोटे मुँह को ढकना सरल है। तीसरे, बड़े मुँह से पानी के भाप बनकर उड़ने
की संभावना अधिक होती है। कुंइयों के ढक्कनों पर ताले भी लगने लगे हैं। यदि कुंई गहरी
हो तो पानी खींचने की सुविधा के लिए उसके ऊपर घिरनी या चकरी भी लगाई जाती है। यह गरेड़ी,
चरखी या फरेड़ी भी कहलाती है।
खड़िया पत्थर की पट्टी
एक बड़े क्षेत्र में से गुजरती है। इस कारण कुंई लगभग हर घर में मिल जाती है। सबकी
निजी संपत्ति होते हुए भी यह सार्वजनिक संपत्ति मानी जाती है। इन पर ग्राम पंचायतों
का नियंत्रण रहता है। किसी नई कुंई के लिए स्वीकृति कम ही दी जाती है, क्योंकि इससे
भूमि के नीचे की नमी का अधिक विभाजन होता है। राजस्थान में हर जगह रेत के नीचे खड़िया
पत्थर नहीं है। यह पट्टी चुरू, बीकानेर, जैसलमेर और बाड़मेर आदि क्षेत्रों में है।
यही कारण है कि इस क्षेत्र के गाँवों में लगभग हर घर में एक कुंई है।
NCERT SOLUTIONS FOR CLASS 11 HINDI VITAN CHAPTER 2
अभ्यास प्रश्न (पृष्ठ संख्या 20)
प्रश्न. 1 राजस्थान में
कुंई किसे कहते हैं? इसकी गहराई और व्यास तथा सामान्य कुओं की गहराई और व्यास में क्या
अंतर होता है?
उत्तर- राजस्थान में रेत
अथाह है। वर्षा का पानी रेत में समा जाता है, जिससे नीचे की सतह पर नमी फैल जाती है।
यह नमी खड़िया मिट्टी की परत के ऊपर तक रहती है। इस नमी को पानी के रूप में बदलने के
लिए चार-पाँच हाथ के व्यास की जगह को तीस से साठ हाथ की गहराई तक खोदा जाता है। खुदाई
के साथ-साथ चिनाई भी की जाती है। इस चिनाई के बाद खड़िया की पट्टी पर रिस-रिस कर पानी
एकत्र हो जाता है। इसी तंग गहरी जगह को कुंई कहा जाता है। यह कुएँ का स्त्रीलिंग रूप
है। यह कुएँ से केवल व्यास में छोटी होती है, परंतु गहराई में लगभग समान होती है। आम
कुएँ का व्यास पंद्रह से बीस हाथ का होता है, परंतु कुंई का व्यास चार या पाँच हाथ
होता है।
प्रश्न. 2 दिनोदिन बढ़ती
पानी की समस्या से निपटने में यह पाठ आपकी कैसे मदद कर सकता है तथा देश के अन्य राज्यों
में इसके लिए क्या उपाय हो रहे हैं? जानें और लिखें।
उत्तर- मनुष्य ने प्रकृति
का जैसा दोहन किया है, उसी का अंजाम आज मनुष्य भुगत रहा है। जंगलों की कटाई भूमि का
जल स्तर घट गया है और वर्षा, सरदी, गरमी आदि सभी अनिश्चित हो गए हैं। इसी प्राकृतिक
परिवर्तन से मनुष्य में अब कुछ चेतना आई है। अब वह जल संरक्षण के उपाय खोजने लगा है।
इस उपाय खोजने की प्रक्रिया में राजस्थान सबसे आगे है, क्योंकि वहाँ जल का पहले से
ही अभाव था। इस पाठ से हमें जल की एक-एक बूंद का महत्त्व समझने में मदद मिलती है। पेय
जल आपूर्ति के कठिन, पारंपरिक, समझदारीपूर्ण तरीकों का पता चलता है।
अब हमारे देश में वर्षा
के पानी को एकत्र करके उसे साफ़ करके प्रयोग में लाने के उपाय और व्यवस्था सभी जगह
चल रही है। पेय जल आपूर्ति के लिए नदियों की सफ़ाई के अभियान चलाए जा रहे हैं। पुराने
जल संसाधनों को फिर से प्रयोग में लाने पर बल दिया जा रहा है। राजस्थान के तिलोनिया
गाँव में पक्के तालाबों में वर्षा का जल एकत्र करके जल आपूर्ति के साथ-साथ बिजली तक
पैदा की जा रही है जो एक मार्गदर्शक कदम है। कुंईनुमा तकनीक से पानी सुरक्षित रहता
है।
प्रश्न. 3 चेजारो के साथ
गाँव समाज के व्यवहार में पहले की तुलना में आज क्या फ़र्क आया है, पाठ के आधार पर
बताइए?
उत्तर- ‘चेजारो’ अर्थात्
चिनाई करने वाले। कुंई के निर्माण में ये लोग दक्ष होते हैं। राजस्थान में पहले इन
लोगों का विशेष सम्मान था। काम के समय उनका विशेष ध्यान रखा जाता था। कुंई खुदने पर
चेलवांजी को विदाई के समय तरह-तरह की भेंट दी जाती थी। इसके बाद भी उनका संबंध गाँव
से जुड़ा रहता था। प्रथा के अनुसार कुंई खोदने वालों को वर्ष भर सम्मानित किया जाता
था। उन्हें तीज-त्योहारों में, विवाह जैसे मंगल अवसरों पर नेग, भेंट दी जाती थी। फसल
आने पर उनके लिए अलग से अनाज निकाला जाता था। अब स्थिति बदल गई है, आज उनका सम्मान
कम हो गया है। अब सिर्फ मजदूरी देकर काम करवाया जाता है।
प्रश्न. 4 निजी होते हुए
भी सार्वजनिक क्षेत्र में कुंइयों पर ग्राम समाज का अंकुश लगा रहता है। लेखक ने ऐसा
क्यों कहा होगा?
उत्तर- जल और विशेष रूप
में पेय जल सभी के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। कुंई का जल और रेगिस्तान की गरमी
की तुलना करें तो जल अमृत से बढ़कर है। ऐसे में अपनी-अपनी व्यक्तिगत कुंई बना लेना
और मनमाने ढंग से उसका प्रयोग करना समाज के अंकुश से परे हो जाएगा। अतः सार्वजनिक स्थान
पर बनी व्यक्तिगत कुंई पर और उसके प्रयोग पर समाज का अंकुश रहता है। यह भी एक तथ्य
है कि खड़िया की पट्टी वाले स्थान पर ही कुंई बनाई जाती हैं और इसीलिए एक ही स्थान
पर अनेक कुंई बनाई जाती हैं। यदि वहाँ हरेक अपनी कुंई बनाएगा तो क्षेत्र की नमी बँट
जाएगी जिससे कुंई की पानी एकत्र करने की क्षमता पर फर्क पड़ेगा।
प्रश्न. 5 कुंई निर्माण
से संबंधित निम्न शब्दों के बारे में जानकारी प्राप्त करें पालरपानी, पातालपानी, रेजाणीपानी।
उत्तर- पालरपानी-यह पानी
का वह रूप है जो सीधे बरसात से मिलता है। यह धरातल पर बहता है और इसे नदी, तालाब आदि
में रोका जाता है। इस पानी का वाष्पीकरण जल्दी होता है। काफी पानी जमीन के अंदर चला
जाता है। पातालपानी-जो पानी भूमि में जाकर भूजल में मिल जाता है, उसे पाताल पानी कहते
हैं। इसे कुओं, पंपों, ट्यूबबेलों आदि के द्वारा निकाला जाता है। रेजाणीपानी-यह पानी
धरातल से नीचे उतरता है, परंतु पाताल में नहीं मिलता है। यह पालरपानी और पातालपानी
के बीच का है। वर्षा की मात्रा नापने में इंच या सेंटीमीटर नहीं, बल्कि ‘रेजा’ शब्द
का उपयोग होता है। रेज का माप धरातल में समाई वर्षा को नापता है। रेजाणी पानी खड़िया
पट्टी के कारण पाताली पानी से अलग बना रहता है तथा इसे कुंइयों के माध्यम से इकट्ठा
किया जाता है।